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________________ किरण ६-७] बङ्गालके कुछ प्राचीन जैनस्थल . .. (पृ०.२५६ का शेषांश) . .... (३) 'पर्याप्त' शब्दका द्रव्य अर्थ विवक्षित नहीं है जाय तो उस समय दोनों ही परम्पराएँ अपनी अपनी उसका भाव अर्थ विवक्षित है। पर्याप्तकर्म जीवविपाकी प्रगति करनेमें अग्रसर थीं । अतः उस समय यदि सचेल प्रकृति है और उसके उदय होनेपर ही जीव पर्याप्तक कहा पुरुष मूर्तियां भी निर्मित कराई गई हो तो आश्चर्य ही नहीं जाता है। है। दुर्भाग्यसे आज भी हम अलग हैं और अपनेमें अधिक- (४) पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने जो भावस्त्रीमें तम दूरी ला रहे है और लाते जा रहे है । समय सम्यग्दृष्टिके उत्पन्न होनेकी मान्यता प्रकट की है वह स्खलित प्राये और हम तथ्यको स्वीकार करें, यही अपनी भावना और सिद्धान्तविरुद्ध है। स्त्रीवेदकी उदय व्युच्छित्ति दूसरे है। और यदि सम्भव हो तो हम पुनः अापसमें एक हो जावें ही गुणस्थानमें हो जाती है और इसलिये अपर्याप्त अवस्थामें तथा भगवान महावीरके अहिंसा और स्याद्वादमय शासन- भावनी चौथा गुणस्थान कदापि संभव नहीं है। को विश्वव्यापी बनायें। (५) वीरसेन स्वामीके 'अस्मादेवार्षाद' इत्यादि कथनसे . उपसंहार सूत्र में 'संजद' पदका टीकाद्वारा स्पष्टतया समर्थन होता है। उपरोक्त विवेचनके प्रकाश में निम्न परिणाम सामने (६) द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोंका कथन मुख्यतथा चरणापाते है: नुयोगसे सम्बन्ध रखता है और षटखण्डागम करणानुयोग ५. (१) षट्खण्डागममें समय कथन भावकी अपेक्षासे है, इसलिये उसमें उनके गुणस्थानोंका प्रतिपादन नहीं किया गया है और इसलिये उसमें व्यस्त्रीके गुणस्थानोंकी किया गया है। द्रव्यस्त्रीके मोक्षका निषेध विभिन्न शास्त्रीय चर्चा नहीं पाई। प्रमाणों, हेतुओं, पुरातत्वके अवशेषों, ऐतिहासिक तथ्यों (२)६३वे सूत्र में 'संजद' पदका होनानागमसे विरुद्ध प्रादिसे सिद्ध है और इसलिये षट्खण्डागममें द्रव्यस्त्रियोंके और न युक्तिसे । बल्कि न होने में इस योगमार्गणा गुणस्थानोंका विधान न मिलनेसे, श्वेताम्बर मान्यताका सम्बन्धी मनुष्यनियोंमें १४ गुणस्थानोंके कथनके प्रभावका अनुषंग नहीं प्रासकता। प्रसंग, वीरसेन स्वामीके टीकागत संजद' पदके समर्थनकी प्राशासूत्रमें वें 'संजद' पदका विरोध न किया असंगति और राजवातिककार अकलंकदेवके पर्याप्त. जायगा और उसमें उसकी स्थिति अवश्य स्वीकार की मनुष्यनियोंमें १४ गुणस्थानोंको बतलानेकी असंगति आदि जाएगी। कितने ही अनिवार्य दोष सम्प्राप्त होते हैं। बीरसेवामन्दिर, ता. ६-६-१६४६ . . बंगालके कुछ प्राचीन जैनस्थल (ले०-बा० ज्योतिप्रसाद जैन; एम. ए.) नक्स आफ दी भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इस्टी-व्य. वरन् कुखएक विशेष महत्वपूर्ण स्थानोंके इतिहासपर ही जिल्द नं० २६ का भाग ३-४ (संयुक्त) अभी हालमें संलिप्त प्रकाश डाला है। ही प्रकाशित हुभा है। उसके पृष्ठ १७७.पर डा.विमला लेखपरसे. प्राचीन काल में निम्न लिखित स्थानोंके परण बाका एक लेख "बंगालके प्राचीन ऐतिहासिक साथ जैनधर्मका सम्बन्ध व्यक्त होता है:पल" नामका प्रकट हुआ है। इस लेख में विद्वान लेखकने पहाड़पुरबंगदेशके सभी प्राचीन स्थानोंका विवेचन महीं किया है, इस नगरके ध्वंसावशेष बंगालके ज़िले राजशाहीमें, Jain Education Interational For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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