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अनेकान्त
होता, किन्तु फिर भी मैं यह सन्देह किये बिना नहीं रह सकता कि कोनों में स्थित दुमंजिले भवन
इमारतों में से भी कुछएक अपने मूलरूप ही स्थित हैं; किन्तु इसपर हम अजमेरी मस्जिदके प्रकरण में जिस मस्जिद में कि जैनस्तंभ प्रायः निश्चयतः अपनी प्राथमिक योजनानुसार स्थित हैं, पुनः विचा· करेंगे । तथापि यह पूर्णतः निश्चित है कि कुतुबके कितने ही स्तंभ वैसे ही खंडों से निर्मित हैं, और वे मस्जिदके निर्माताओं द्वारा उन स्थानों में स्थापित किये गये हैं जहां वे आज भी खड़े हुए हैं।
वह भाग अर्थात् प्रधान स्तंभश्र णीका अर्धभाग (जो कि महराबों की विशाल श्रृंखलाके सन्मुख पड़ता है) अपने रूपको स्वयं शब्दों की अपेक्षा कहीं अधिक भले प्रकार स्पष्ट करता है । वह इतना विशुद्ध जैन है कि उक्त शैलीका कथन करते हुए उसका कथन शायद वहीं करना चाहिये था; किन्तु वह भारतवर्षकी चूंकि सबसे प्राचीन मस्जिदका एक अंग — जनरल कनेघमको उसकी दीवारपर एक अभिलेख अङ्कित मिला था जिसमें लिखा था कि इस मस्जिदके वास्ते सामग्री प्रदान करनेके लिये २७ भारतीय मन्दिर नष्ट किये गये थे (आर्कोलोजिकल रिपोट्र्स, जिल्द १ ५० १७६) । तथापि इसपरसे विशेष कुछ सिद्ध नहीं होता जब तक कि किसीको यह मालूम न हो कि इस कार्यके लिये जो मन्दिर ध्वंस किये गये वे कैसे थे । खजुराहो जैसे २७ मन्दिर, गन्धई मन्दिरको छोड़कर, इसके अन्दरूनी मंडपोंके श्रधेके लिये भी स्तंभ प्रदान नहीं कर सकते, और सादरी जैसा एक ही मन्दिर पूरी मस्जिद के लिये पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत करदेता, यद्यपि यह मन्दिर बहुत श्रर्वाचीन है तथापि यह मानलेने का भी कोई कारण नहीं है कि मुस्लिमकाल से पूर्व ऐसे मन्दिर अवस्थित ही नहीं हो सकते थे ।
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[वर्ष ८
है अतः इसी प्रसंग में उसका उल्लेख करना सर्वोपयुक्त है। ये स्तंभ उसी श्र ेणी के हैं जैसे कि श्राबू पर्वतपर ( देलवाड़ाके जैनमन्दिरों में ) प्रयुक्त हुए हैं- सिवाय इसके कि देहलीवाले स्तंभ उनकी अपेक्षा अधिक समृद्ध और अधिक श्रमपूर्वक निर्मित हैं । इनमें से अधिकाँश तो संभवतः ११ वीं या १२ वीं शताब्दी के हैं और भारतवर्ष में उपलब्ध उन थोड़ेसे नमूनों में से हैं जो कि श्रलङ्कारों (सजावट) से अत्यधिक लदे हुए हैं। इनमें, सिवाय परदेके पीछे वाले स्तंभो के तथा उनमें से कुछ एकके जिनका संबंध अधिक प्राचीनतर भवनों से था, सबमें ही शिरोभाग (चोटी) से लगाकर मूल तक एक इंच स्थान भी कहीं सजावटसे खाली नहीं है । तिसपर भी इनकी सजावट इतनी तीक्ष्ण है और इतनी चतुराई एवं कुशलता से अङ्कित की गई है और उसका प्रभाव उनकी जीणेंशीर्ण अवस्थामें भी इतना चित्रोपम है कि ऐसी अत्यधिक सौन्दर्यपूर्ण वस्तुमें कोई भी दोष ढूंढ निकालना अत्यन्त कठिन है । कुछ स्तंभों मेंसे उनके अड्डो में अंकित ऐसी मूर्तियों को काट-तोड़ कर निकाल दिया गया है जो कि मुसल - मानो की मूर्तिपूजाविषयक कट्टरताको क्षुब्ध वरती थीं । किन्तु छतमें तथा कम दीख पड़ने वाले भागों में जैन अर्हतो की पद्मासनस्थ मूर्तियाँ और उस धर्म के अन्य चिन्ह - धार्मिक प्रतीक- आदि अब भी लक्षित किये जा सकते हैं।
कुतुबमीनार -
यह स्पष्ट नहीं होता कि मीनार की खड़ी बांसुरी नुमा कोनियें कहाँसे नक़ल की गई हैं- खुरासान तथा और सुदूर पश्चिम में पाई जानेवाली मीनारों की किसी प्रकल्पक विशेषतासे, या कि वे जनमन्दिरों की
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