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________________ किरण ६-७] रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है २८३ से । कर्मों के सर्वथा क्षयसे जो दोषाभाव अथवा गुण होता चार-चार महीने और एक एक वर्ष तक प्रतिमायोग धारण है वह अपने परिपूर्ण रूपमें और सदाके लिये होता है। करनेपर भी कभी थकते नही हैं और न उन्हें पसीना ही उस नष्ट शेषके अथवा उत्पच गुणके अंभावके पुनः होनेकी पाता है। राजवार्तिकका यह उद्धरण इस प्रकार है:किसी भी काल, किसी भी क्षेत्र और किसी भी पर्यायमें "वीर्यान्तराय, योपशमाविर्भूतासाधारणकायबसम्भावना नहीं रहती। एक बार उत्पन्न हुआ फिर वह सटेव लत्वान्मासिकचातौमिक-सांवत्सरिकादिप्रतिमायो - अनन्त कालतक वैसा ही बना रहता है-उसकी प्रच्युति फिर नहीं होती। पर कर्मों के क्षयोपशमसे जी दोषाभाव : गधारणेऽपि श्रम-क्लमविरहिताः कायबलिनः"पृ.१४४ अथवा गुण होता है वह न्यूनाधिक और किसी निश्चित देवोंके आयुकर्म और घातिकर्मका उदय मौजूद है. और काल तक के लिये ही होता है और इसीलिये क्षयोपशमिक श्रादुकर्म तो प्रतिक्षण गलता भी रहता है फिर भी उनके । गुण अथवा दोषाभाव तरतमता-न्यूनाधिकताको लिये हए पाये जरा नहीं जाती-उसका अभाव है और इसीलिये उन्हें जाते हैं और असंख्यातरूपसे वे घटते बढ़ते रहते हैं--एक 'निर्जर" कहा गया है । यदि पूछा जाय कि उनके जराका बार उत्पन्न हुथा क्षयोपशमिक गुण अथवा दोषाभाव प्रभाव किस कर्मके क्षयसे है या किस तरहसे है तो इसका कालान्तर, देशान्तर और पर्यायान्तरमें नष्ट होकर पुनः भी उत्तर यही दिया जायगा कि यद्यपि उनके वीर्यान्तरायकर्मका उत्पन्न हो जाता है। उदाहरणस्वरूप एक वीर्यान्तरायकर्मके उदय है-क्षय नहीं है फिर भी उसका उनके भवनि मत्तक क्षयोपशमको ही लीजिये, वह सर्वतो न्यून सूक्ष्म निगोदिया विशिष्ट क्षयोपशम है और उससे उन्हें ऐसा बल प्राप्त रहता लब्ध्यपर्याप्तक होता है और सर्वतो अधिक तेरहवें गुण- है कि जिसकी वजहसे वे बुढापाको प्राप्त नहीं होते। इसी स्थानके उन्मुख 'हए बारहवें गुणस्थानवी महायोगी क्षयोपशमके प्रभावसे पसीनाका भी उनके प्रभाव है। तात्पर्य निर्ग्रन्थके और सर्वार्थसिद्धिके देवके है। मध्यवर्ती असंख्यात यह कि इस कर्मके क्षयोपशमका बड़ा अचिन्त्य प्रभाव है। __ भेद दूसरे अनन्त प्राणियोंके हैं। एक ही जीवके विभिन्न इसी प्रकार मोहनीय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयो कालोंमें वह संख्यातीत प्रकारसे हो सकता है। इस वीर्यान्त- . पशमको भी समझना चाहिये । निद्रादर्शनाचरण कर्मका रायकर्मके क्षयोपशमका ही प्रभाव है कि दो-दो छह-छह उदय उनके विद्यमान है-उसका उनके क्षय नहीं है फिर महीने और यहाँ तक कि बारह वर्ष तक भी मानवशरीरमें भी जो उनके निद्राका अभाव है और वे सदैव 'निर्निमेष भूख-प्यासादिकी वेदना नहीं हो पाती। यह बात तो आज अथवा 'अस्वप्न' बने रहते हैं वह उस कर्मके भावनिमित्तक भी अनुभव सिद्ध है कि वीर्यन्तरायकर्मके तयोपशमकी विशिष्ट क्षयोपशमकी ही कृपा है। अन्तमहर्तमें समग्र न्यूनाधिकतासे कोई एक ही उपवास कर पाता है या मामूली द्वादशाङ्ग श्रुतका पारायण करने वाले श्रुतकेवलीको कौन ही परिश्रम कर पाता है और दूसरा स-स बीस-बीस नहीं जानता ? अत: यही बात प्रकृतमें समझिये । केवली उपवास कर लेता है या बड़ा-सा बड़ा परिश्रम करके भी भगवानके चूकि वातिकर्मोंका सर्वथा क्षय हो चुका है, थकानको प्राप्त नहीं होता। अकलंकदेवने राजवार्तिकमें एक इसलिये उनके सुधादि प्रवृत्तियोंका प्रभाव उन कायबलऋद्विधारी योगी मुनिका वर्णन किया है. जिसमें कर्मों के सर्वथा क्षयजन्य है और सरागी देवोंके चकि घातकहा गया है कि उन्हें वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशमसे असा- कौंका एक खास तरहका क्षयोपशम है और इसलिये उनके धारण काय-बल प्राप्त होता है जिससे वे एक एक महीने उन प्रवृत्तियोंका खास तरहका अभाव है और वह क्षयं पशमप्राविर्भाव कुछ अधिक ६६ सागर तक बना रहता है। - जन्य है, जो क्षयोपशम उनकी आयु पर्यन्त ही रहता है और क्षय-अवस्थामें दोषाभाव और गुरु का आविर्भाव तथा पा के समाप्त होनेपर पर्यायान्तर-मानव या तिथंचसादि होता हुश्रा अनन्त काल तक अर्थात् सदैव रहता.१ "अमरा निर्जरा देवास्त्रिदशा विबुधाः।"-अमरकोष १-७ है-फिर उसकी प्रच्युति नहीं होती। इन दोनोंपर ही २ "आदित्या ऋभयोऽस्वप्ना अमर्त्या अमृतान्धसः।" प्रकृतमें विचार किया गया है। -अमरकोष १-८॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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