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अनेकान्त
[वर्ष
की पर्याय-ग्रहण करते ही उस पर्यायानुकूल भूख-प्यासा- विद्यानन्दके इस शंका-समाधानसे स्पष्ट है कि केवलीके दिकी प्रवृत्ति होने लगती है। अपनी पर्यायमें तो उन मानव धादि प्रवृत्तियोंका अभावरूप महोदय घातियाकर्मक्षय-जन्य साधारण प्रवृत्तियोंका अभाव ही है । तात्पर्य यह हुआ कि है और सरागी देवोंके घातियाकर्मक्षय-जन्य न होकर उनके सुधादि प्रवृत्तियोंका अभाव धातिया कोंके क्षयसे और क्षयोपशम-जन्य है। यही कारण है कि उन महोदयको उनके सयोपशमसे दोनोंसे होता है । उनका सर्वथा श्रात्य-. अतिशयमात्र ही बतलाया गया है-उसे लक्षणको टमें न्तिक अभाव तो केवलीके होता है जो घातिकर्मों के रुय-जन्य नहीं रखा और इसलिये वह उपलक्षण हो सकता है। यहाँ है और दैशिक, कालिक और पार्यायिक उनका अभाव हम यह भी प्रकट कर देना चाहते हैं कि क्षुधादि प्रवृत्तियोंमें सरागी देवोंके या विशिष्ट योगियोंके होता है जो घातिकमोंके यथासम्भव प्रवृत्तियोंका ही प्रभाव देवोंमें है, जैसे पसीनाका क्षयोपशम-जन्य है । और इसलिये घातियाकर्मों के क्षय तथा प्रभाव, जराका प्रभाव मानवीय क्षुधा-पिपासाका प्रभाव, क्षयोपशम और बुधादि प्रवृत्तियों के प्रभावमें कारण-कार्य- आतंक (रोग) का प्रभाव, अकालमृत्युका अभाव आदि । भाव सोपपन्न है-इसमें कोई बाधादिदोष नहीं हैं। और इनकी अपेक्षा सरागी तथा वीतरागी देवोंमे समानता हमारे इस विवेचनका समर्थन प्राचार्य विद्यानन्दके
है। और राग, द्वष, मोह, चिन्ता, भय आदिके अभावकी
अपेक्षा उनमें असमानता है। प्राप्तमीमांसामें चुकि हेतुवादसे अष्ठसहस्रीगत महत्वपूर्ण शंका-समाधानसे भी हो जाता है, जो इस प्रकार है
प्राप्तका निर्णय अभीष्ट है, इसलिये वहाँ वह केवल असमा
नता (वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशकता) ही विवक्षित “अथ यादृशो घातिक्षयजः स (विग्रहादिमहो- हुई है और इसीके द्वारा अरहन्तको कपिलादिसे व्यवच्छेद दयः) भगवति न तादृशो देवेषु येनानैकान्तिकः करके प्राप्त सिद्ध किया गया है। पर, रत्नकरण्डश्रावकाचार स्यात् । दिवौकस्वप्यस्ति रागादिमत्सु स नैवास्तीति चुकि श्रद्धाप्रधान श्रावकोंके धर्मका प्रतिपादक ग्रंथ है, अत:
वहाँ हेतुवाद और अहेतुवाद (आज्ञावाद-भागमवाद) दोनों व्याख्यानादभिधीयते । तथाप्यागमाश्रयत्वादहेतु :
द्वारा स्वीकृति अतिशयदिछुक भी प्राप्तका स्वरूप वर्णित पूर्ववत् ।"-पृ०४। ।
किया गया है। इससे स्पष्ट है कि प्राप्तमीमांसामें बधादि यहाँ विद्यानन्द पहले शंकाकार बन कर कहते हैं कि
प्रवृत्तियोंका प्रभाव भी केवलीमें विवक्षित है। पर, लक्षण
अब जैसा घातियाकर्मक्षयजन्य वह निःस्वेदत्यादि महोय रूपसे नहीं, किन्तु उपलक्षण अथवा अतिशयरूपसे। भगवान्में पाया जाता है वैसा देवोंमें नहीं है. उनके तो
लक्षण और उपलक्षणका विवेकघातियाकर्म मौजूद हैं-मात्र उनका चयोपशम है और .' इसलिये उनका महोदय छाति कर्मों के आयजन्य नहीं मैंने अपने इसी लेखमें आगे चलकर यह बतलाया था है-क्षयोपशपजन्य ही है। अत: हेतु अनैकान्तिक नहीं है कि 'रत्नकरण्ड (श्लोक ५) में प्राप्तका स्वरूप तो
और इसलिये यह महोदय (पातिकर्मक्षय-जन्य) प्राप्तपनेका सामान्यत: प्राप्तमीमाँसाकी ही तरह "प्राप्तनोत्सन्ननिर्णायक होसकता है। इसका वे फिर उत्तरकार बनकर उत्तर दोषेण" इत्यादि किया है। हाँ, आप्तके उक स्वरूपमें देते हैं कि फिर भी (उक प्रकारसे हेतुमें व्यभिचार वारित आये 'उत्सन्नदोष के स्पष्टीकरणार्थ जो वहाँ क्षुत्पिपासा हो जानेपर भी) हेतु आगाम श्रय है, पहलेकी तरह । अर्थात् प्रादि पद्य दिया है उसमें लक्षण-रागद्वेषादिका प्रभाव वह भागमपर निर्भर है-श्रागमकी अपेक्षा लेकर ही साध्य और उपलक्षण-क्षुधादिका प्रभाव दोनोंको 'उत्सन्नदोष सिद्धि कर सकेगा; क्योंकि आगममें ही भगवानके निःस्वे- के स्वरूपकोटिमें प्रविष्ट किया गया है ।' और फुटनोटमें दत्वादि महोदयको घातियाकर्मक्षय-जन्य बतलाया गया है न्यायकोष तथा संक्षिप्तहिन्दीशब्दसागरके आधारसे और इसलिये यहाँ हेतुवादसे प्राप्तका निर्णय करने में वह लक्षण और उपलक्षणमें भेद दिखाया था। इसपर प्रो. अविवक्षित है।
सा० ने उपलक्षणके दो-तीन और लक्षण अपने मूल लेखमें
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