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________________ किरण ६–७] ही— फुटनोट में नहीं— उपस्थित किये हैं, मानों वे मेरी दृष्टिमें न हों और अन्तमें मुझसे पूछा है कि 'मेरे मतानुसार सुधादिवेदनाओं का अभाव प्राप्तका किस प्रकारका उपलक्षण है और रत्नकरण्डकार उसके द्वारा प्राप्तकी क्या विशेषता बतलाना चाहता है ? उसके द्वारा प्राप्तको सरागी देवोंके सदृश बतलाना उन्हें अभीष्ट या उनसे पृथक् ।' मेरे द्वारा लक्षण और उपलक्षण में सप्रमाण दिखाये गये अन्तरमें आपने कोई दोष नहीं बतलाया और जब उसमें कोई दोष नहीं है तो उपलक्षण के लांगूल पुच्छकी तरह श्रन्यथासिद्ध और लक्षणोंको प्रस्तुत करना सर्वथा अनावश्यक है उनसे सिद्ध प्रसिद्ध कुछ भी नहीं होता । शब्दस्तोममहानिधिगत उपलक्षणके स्वरूपको प्रस्तुत करते हुए तो वे उपलक्षण और अजहत्स्वार्था लक्षणामें भेद ही नहीं समझ सके । श्रस्तु हम पुनः दोहराते हैं कि हमने जो लक्षण और उपलक्षणके मध्युमें न्यायकोष और हिन्दीशब्दसागर के श्राधारसे अन्तर दिखाया है वह निर्दोष है और इसलिये वही हमारे लिये वहाँ विवक्षित है। वास्तवमें उपलक्षण कहीं तो शब्दपरक होता है, जैसे “काकेभ्यो दधि रदयताम्” में काक पद उपलक्षण है और कहीं अर्थपरक होता है, जैसे श्रात्मा के ५३ भावों में जीवत्वभावके अलावा एक प्राचीन ताम्र-शासन Jain Education International २८५ ५२ भाव उपलक्षण हैं। प्रकृतमें सुधादि प्रवृत्तियोंका अभाव श्राप्तमें अर्थपरक उपलक्षण है और उससे रत्नकरण्ड श्रावकाचारका कर्ता श्राप्तको मानवप्रकृति से भी प्रतीत बतलाना चाहता है । अर्थात् 'वे (केवली भगवान्) लोकोत्तर परमात्मा है यह उसके द्वारा प्रकट करना उन्हें अभीष्ट है । सरागी देव मानवप्रकृति से ऋतीत (श्रमानव) होते हुए भी वे प्राप्तसे पृथक हैं, प्राप्त तो मानवप्रकृतिरहित और देवाधिदेव है एवं घातिकर्मक्षयजन्य श्रपरिमित विशेषताओंसे युक्त है, पर सरागीदेव केवल मानवप्रकृतिरहित ही हैं एवं कर्मोंके विशिष्ट क्षयोपशमजन्य सीमित और श्रल्पकालिक विशेषता — महोदयोंसे ही युक्त हैं-- वे देवाधिदेव वीतरागदेव नहीं हैं, यह रत्नकरड श्रावकाचार के ६ ठवें पद्यमें उसके कर्ताने बतलाया है और यह स्वयं श्राप्तमीमांसाकारकी ही द्वितीय रचना स्वयम्भूस्तोत्रके मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्' आदि ७५ वें पद्य के सर्वथा अनुकूल है। अतः सरागी और वीतरागी देवोंके कुछ सादृश्यको लेकर उन्हें सर्वथा एक समझना या बतलाना भारी भूल है । इस सम्बन्धमें पीछे पर्याप्त विचार किया जा चुका है छतः और अधिक विस्तार अनावश्यक है । एक प्राचीन ताम्र-शासन अर्सा हुआ भारत सरकार के अभिलेख वेत्ता डा० हीरानन्दजी शास्त्री एम० ए० ने ऊटकमण्ड (मद्रास) से एक प्राचीन ताम्रशासनकी प्रतिलिपि (कापी), कुछ प्रश्नोंके साथ, मुनि पुण्य विजयजी के पास पाटन भेजी थी और उनके पाससे, तत्सम्बन्धी जानकारीके लिये, मुझे प्राप्त हुई थी; क्योंकि ताम्रशासन का सम्बन्ध आर्यनन्दि नामके दिगम्बराचार्य से है, जिन्हें इस शासनपत्र में 'जम्बूखण्ड' गणका श्राचार्य लिखा है और विस्तृत ज्ञान-दर्शन- तपसे सम्पन्न बतलाया है । ये आचार्य उस समय 'जलार' ग्राम में जो कि कण्माण्डी देशके अन्तर्गत पर्वत निकटवर्ती ग्राम था, अपने गण अथवा संघ सहित स्थित थे । इनके नामपर इस शासनपत्रमें ग्रामके उत्तर में स्थित पूर्विण ग्रामका ५० निवर्तन क्षेत्र, भगवान् अर्हन्तकी प्रतिमा अथवा प्रतिमाओंकी नित्यपूजा के लिये और शिक्षक (शैक्ष्य - शिष्य ?), ग्लान (रोगी) तथा वृद्ध तपस्वियोंकी वैयावृत्ति (सेवा) के लिये, दान किया गया है, जिसकी सीमाओं का दानपत्र में स्पष्ट उल्लेख है। यह दान उन श्रीमान् इन्द्ररणन्द अधिराजकी ओरसे, अपने वंशजोंकी और अपनी धर्मवृद्धिके लिये, For Personal & Private Use Only (क्रमश:) www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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