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________________ किरण ६-७] धर्म और नारी २६६ है कि कई परिव्रामकाएँ सिर मुंडन कर, मोरपंख बना सकता है। और ये बातें स्त्री तथा पुरुष दोनोंके लिये.. और कमंडुल लिये तपस्या किया करती थीं। उनके पर्यटन समान रूपसे लागू होती है । जैनाचार्योने 'वस्तु के स्वभाव' और स्वतंत्र विहारमें कोई रुकावट न थी, जबकि श्वेताम्बर को धर्म कहा है अर्थात् जो जिस चीनका स्वभाव होता श्रार्थिकाएँ प्राय: उपाश्रयो में ही रहती हैं। है-उसका निजी गुण होता है-यही उसका धर्म है। वास्तवमें. आज जितना धर्मसाधन, श्रात्मकल्याण प्रात्माकी जो असलियत है, उसके जो परानपेक्ष वास्तविक और अपने व्यक्तित्वका विकास एक पुरुष कर सकता है निजी गुण हे वही सब उसका धर्म है, उसकी मौजूदगीमें उतना ही एक स्त्रा भी कर सकती है, इस विषयमें दोनों ही ही उसे सच्चा सुख, शान्ति और स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। सम्प्रदायोंमें कोई मतभेद नहीं है। और साथ ही एक जिन लरियोंके द्वारा या जिस मार्गपर. चलकर अात्म्म. पुरुष भी यदि वह कुशाल है, चाव्यिहीन है । अपन अपने उस असली स्वभावको प्राप्त होता है व्यवहारमें, अपाहज या शक्ति-सामर्थ्यहीन है तो वह भी कभी सर्वोच्च उस मार्ग या करियोंको ही.धर्म कहते हैं। स्वामी ममन्तपदकी प्राप्ति उसी जीवन में नहीं करसकता. इस कार्यकी भद्राचार्यके अनुसार इस धर्मका कार्य प्राणियोश्रो दुःखसे सफलताके लिये तो सर्वाङ्ग सर्वश्रेष्ठ शारीरिक मानसिक निकालकर सुखमें धारण करना *। स्त्री और पुरुष संगठन तथा सर्वोत्तम चारित्र, पूर्ण वीतरागताका होना दोनोंकी ही आत्माएँ समान हैं, उनके श्रामीक गुण और अत्यन्त आवश्यक है। स्वभाव बिल्कुल यकमाँ हैं, उनमें तनिकसा भी अन्दर जहाँ तक धर्मसाधन और स्त्री-पुरुष सम्बन्धका प्रश्न नहीं होता। दु:ख और सुखका अनुभव तथा दुःखसे बचने है, उस विषयमें किसी अन्य धर्मने स्त्री पुरुषके बीच कोई और सुख प्राप्त करनेकी इच्छा भ दोनों में बर बर है अपने भेद भले ही किया हो, किन्तु जैनतीर्थरों और धर्माचार्याका घम धर्म अर्थात् स्वभावको हासिल करने का दानों को समान ... दृष्टिकोण सदेवसे बहुत ही उदार एवं साम्यवादी रहा है। मांधकार है, और उस धमके साधनमें दोनों ही समान उन्होंने मोक्ष प्राप्तिका अाधार किसी व्याक्त या शक्ति विशेष रूपसे स्वतन्त्र है। ऐसी जैनमान्यता है. और इसमें दिगम्बर का की अनुकम्पा, अनुग्रह अथवा प्रसन्नताको नहीं रक्खा. " और श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदाय पूर्णतया एकमत हैं।.. वरन् प्रत्येक व्यक्तिके अपने स्वयं के किये को, पुरुषायों धमके श्रादिप्रयतेक प्रथम जैन तर्थकर भगवान और आचरणोंके ऊपर उसे अवलम्बित किया है । इस ऋषभदे ने भोगप्रधान अज्ञानी मानव समाजमें सभ्यताका सिद्धान्तके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति स्वोपान्ति कर्मके अनुरूप सर्व प्रथम संचार किया था, उन्होंने उसे कर्म करने के लिये ही अपनी भावी अवस्था और स्थितिका स्वयं ही निर्माण प्रोत्साहित किया, विविध शिल्पों और कलाश्रोकी शिक्षा करता है। उसका भविष्य और उस भविष्यका बनाना दी, सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था स्थापतकी। उन बिगाडना उसके अपने प्रार्धन है, दूसरे वि.सीका उसमें श्रादिपुरुषने अपने अनेक पुत्रोंके साथ साथ अपनी दोनों कोई दखल नहीं । इतना ही नहीं, वह सद्धर्माचरण, पुत्रियों ब्राझी और रन्दरीको भी विशेषरूपसे शिक्षा-दीक्षा तप-संयम, तथा कंधादि कषायोंकी मन्दतारूप अपने दी थी। कुमारी ब्रह्मा के लिये ही सर्वप्रथम लिपिकलाका . वर्तमानमें किये सदुद्योगों द्वारा पूवोपार्जित दुष्कमौके प्रशभ आविष्कार किया था. और इसीलिये भारतवर्षकी प्राचीनतम फलमें भी परिवर्तन कर सकता है. कभी कभीके पिछले लिपि 'ब्राझी' कहलाई-ऐसी जैन अनुश्रुति है। दिगम्बर बंधे कौका भी नाश कर सकता है, और अपने लिये अन्योमें उल्लेखित चक्रवति नरेशोंकी पलियाँ इन्न शक्तिमुक्तिका मार्ग प्रशस्त कर सकता है। अहिसाके स्व-पर- मती हती थीं कि वे अपनी कोमल अंगुलियोसे वज्रसदृश हितकारी प्राचरणसे और स्याद्वादात्मक अनेकान्त दृष्टिसे रत्नों (हरि जवाहरात आदि) को चूर्ण करदेती थीं और उत्पन्न सहिष्णुता और सहनशीलतासे वह न सिफ अपने अपने पतियोंकी विजययात्राके उपलक्षमें उस चरों से व्यक्तिगत जीवनको ही वरन् समस्त सामाजिक एवं राष्ट्रीय चौक पूरती थीं । ब्राह्मी, अंजना, सीता, मैना, राजुल, अन्तरराष्ट्रीय जीवनको भी सुख और शान्ति पूर्ण अवश्य ही * संसार दुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे।-र.क.अ. १.२. स्वयंके किया । इस म संचार किया और कलाला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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