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२६८.
. अनेकान्त
वर्ष ८
पायेगा और तत्पश्चात् चौथा काल चलेगा। अर्थात् गत लगभग एक हजार वर्ष बाद (५ वीं शताब्दी ईस्वीके चतुथकालकी समाप्ति और भावी चतुर्थकालके प्रारम्भके अन्तमें) हो गया था। उसके पश्चात विभिन्न भाषाबीचमें ८४००० वर्षका अन्तर है और मोक्ष चौथे काल में प्रोंमें- विविध-विषयक उच्चको टके विपुल जैनसाहित्यकी ही होती है। इसका यह अर्थ है कि पिछले कोई दाई हजार रचना हुई, जिसके प्रणयन और प्रचारमें जैनस्त्रियों और वर्षों में (ठक ठीक २४१० वर्ष में) किसी भी स्त्री या पुरुष पुरुषों सभीने योग दिया है। ने परममुक्ति प्राप्त नहीं की और न आगे करीव ८१५०. स्त्रीमुक्तिको मानने या न माननेसे भी उभय सम्प्रदायोंमें वर्ष नक वैसा करना संभव है। आज कोई भी व्यक्ति ऐसा नारीकी स्थितिपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। श्राम्नाय-भेद नहीं है कि जो गत २५०० वर्षकी अपनी प्रमाणिक शृङ्खला रहते हुए भी श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंका बद्ध वंशपरम्परा बता सके अथवा इस बातकी गारंटीकर सके सामाजिक जीवन, आचारविचार. रहन-सहन, रीति-रिवाज कि आगामी८१५०० वर्षतक उसकी वंशजपरम्परा अविच्छिन्न प्रायः एकसे हैं दोनोंके अनुयायियोंमें परस्पर श्रादानचलेगी। दोनों ही बातें मानवके सामित शानकी परिधि प्रदान, रोटी बेटी व्यवहार भी होता है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें के बाहर है, प्रागऐतिहासिकता, २अनागत सुदूर भविष्यकी। नारीकी स्थिति और अवस्था दिगम्बर सम्प्रदायकी अपेक्षा अतएव कोई भी व्यक्ति वर्तमानमें यह कह ही नहीं सकता किसी अंशमें भी श्रेष्ठतर नहीं रही है और न है। बल्कि है कि उसके अमुक निजी पूर्वजने मुक्ति प्राप्त की या वह दिगम्बर सम्पदायकी स्त्रियाँ ही ग्रायः करके अधिक सुशिस्वयं कर सकता है, अथवा उसका कोई भी निजी वंशज क्षित, सुसंस्कृत और धर्मपालनमें स्वतन्त्र रहती आई है, कर सकेगा। तब विवाद किस बातका?.और स्त्रीमुक्ति के और आज भी है। जबकि श्वेताम्बर गृहस्थ पुरुषोंको भी प्रश्नको.लेकर व्यर्थकी माथापच्ची किस लिये ? .... आगम ग्रन्थोके अध्ययन करनेकी मनाई है दिगम्बर . जहाँ तक प्रश्न प्रात्मकल्याणका है, आत्मोन्नति और ।
समाजकी स्त्रियाँ सभी सभी शास्त्रोंका अभ्यास करती हैं, श्रात्मीय गुणोंके विकासका है अथवा सच्चारित्र, सदाचार,
शास्त्रोपदेश भी देती है। श्रवण बेलगोलके शिलालेखोंसे टिपालनका मा
पता चलता है कि वे मुनिसंघों की अध्यापिका तक रही उसलोपर आचरण करके अपने और दूसरोंके लिये हाली. है+। श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रसिद्ध दार्शनिक रत्नप्रभाचार्यने किक सुख-शान्ति प्राप्त करने-कराने तथा अपना परमार्थ अपर
अपनी समकालीन दिगम्बर साध्वियोंके सम्बन्धमें स्वयं कहा सुधारने और अपने लिये मुक्तिका मार्ग प्रशस्त करनेका है * कर्णाटककी कान्ति नामक दि. जैन-महिला-कवि छन्द, वह जैनधर्मके अनुसार, आज भी प्रत्येक व्यक्ति, चाहे अलङ्कार, काव्य, कोष, व्याकर आदि नाना ग्रन्थों में वह स्त्री हो या पुरुष दिगम्बर हो या श्वेताम्बर, जैन हो या कुशल थी। बाहुबलि कविने इसकी बहुत बहुत प्रशंशा अजैन, समान रूपसे अपनी अपनी शक्ति और रुचिके करके इसे 'अभिनव वाग्देवी' की पदवी दी थी। द्वारअनुसार पूरी तरह कर सकता है। कोई भी धार्मिक मान्यता समुद्रके वल्लालराजा विष्णुवर्धनकी सभामें महाकवि पंप उसमें बाधक नहीं, और न धर्मानुकूल कोई रिवाज या और कान्तिका विवाद हुआ था। कन्नड़-कवि-चक्रवर्ती सामाजिक नियम ही उसमें किसी प्रकारकी रुकावट डालता रनकी पुत्री अतिमम्बे भी परम विदुषी थी. उसीके लिये है। जैनधर्मका इतिहास, जैन समाजकी जीवनचर्या और रन्नने अजित पुराणकी रचनाकी थी। सेनापति मल्लपकी जैनसाहित्य इसके साक्षी है । दिगम्बर जैनागम ग्रन्योंका । पुत्री अत्तिमन्बेने उस युगमें जबकि छापेका अष्किार नहीं संकलन और लिपिबद्ध होना तथा उनके स्वतंत्र धार्मिक हुआ था, पोनकृत शान्तिपुराणकी १०.. हस्त लखित साहित्यकी रचनाका प्रारंभ भगवान महावीरके निर्माणके प्रतिलिपियें कराकर वितरणकी थीं। इस प्रकारके और भी लगभग ५०० वर्षके भीतर ही (प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्वमें) अनेक उदाहरण जैनइतिहासपरसे दिये जा सकते हैं। होगया था और श्वे. जैनागम साहित्यका भी संकलन व + प्रेमी अभिनन्दन ग्रं० पृ० ६८६; तथा जैन शिलालेखलिपिबद्ध होना तथा स्वतन्त्र ग्रन्थरचनाका प्रारम्भ उनके संग्रह २३, २७, २८, २९, ३५...
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