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सर राधाकृष्णनके विचार पेरिसमें संयुक्त राष्ट्रीयसंघके शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठनके प्रथम अधिवेशनमें भाषण देते हुए हालमें सर राधाकृष्णनने कहाःमानवताका पुनः-संस्थापन
संसारकी वर्तमान दुरवस्थाके मुख्य कारण जीवनके प्रति - "यूनेस्काका उद्देश्य केवल इतना ही नहीं है कि वह हमारा पार्थिव दृष्टिकोण, प्रात्म-विद्याके प्रति हमारी अवज्ञा और थोडीसी नयी व्यवस्थाएँ करके बैठ जाये । उसे तो जीवनकी. आध्यात्मिक आदशाक प्रात हमारा उदासीनता ।
संसारको उन्नत करनेके लिये हमें आदर्शवादी दृष्टिकोण, एक नयी दिशा, एक नया दृष्टिकोण और एक नयी विचारधाराका अन्वेषण करना है, जो मानव जातिको स्फुरण
दार्शनिक विचारधारा तथा आध्यात्मिक तत्वोंको पुनः अपनाना प्रदान कर सके। अपने देशमें हम लोग इस बातमें विश्वास प रखते हैं कि ऐसी विचारधारामें आध्यात्मिकताका पुट अवश्य
नये आदर्शोकी आवश्यकता हो। धुरी राष्ट्रोंका उदाहरण हमारे लिये चेतावनी है। परन्तु मेरी सबसे अधिक चिन्ता इस बातके लिये है कि जर्मनी और जापान बौद्धिक अवदानों, वैज्ञानिक प्रगति, कहीं हम बुद्धिवादी ही अपने कार्यके प्रति भूठे सिद्ध न हों। औद्योगिक कुशलता और सैन्यशनिमें बढ़े चढ़े थे, लेकिन हममें विनम्रता ही नहीं, सचाई भी होनी चाहिये । अपरिफिर भी पिछले महायुद्ध में वे पराजित हुए। वे इसलिये पक्व मस्तिक.में मिथ्या धारणाएं भरने और ज्ञानके स्रोतों असफल हुए कि उनमें विवेक और बुद्धि का अभाव था। को विषाक कर देनेके लिये हमी उत्तरदायी हैं हम सरल ___ अगस्त १६४६के अन्तिम दिन जब न्यूरेम्वर्गके बन्दियों युवकोंके मस्तिष्कोंको विकृत कर देते हैं और युद्धकी इच्छा से पूछा गया कि उन्हें कोई युक्रि देनी है तो उनमें से एक न रखने वाले निषि व्यक्तियों को मृत्यु तथा विनाशका नंगा फ्रैंकने का “प्रधान अभियुक्र एडोल्फ हिटलर जर्मच-जनता नाच नाचनेवाले दानवों के रूपमें परिणत कर देते हैं। मानवके सम्मुख अपना अन्तिम बयान देनेको यहां उपस्थित नहीं हृदयकी कोमल भावनाओंका उन्मूलन करके उसकी सहज है। वैज्ञानिक त्रुटियोंके कारण हम युद्ध में पराजित नहीं हुए। खलकका अन्त कर देते हैं। महान बुद्धिवादी सुकरात, जिसे परमात्माने हिटलर और हम सबके विरुद्ध, जो ईश्वरसे पश्चिमी संसारके बुद्धिवादियोंका प्रतिनिधि कहा जा सकता विमख थे और जिन्होंने हिटलर की सेवाकी, अपना निर्णय है. प्रारम-निर्णयके सिद्धान्त पर चलता था। जब उसका दिया है।" जब कोई राष्ट्र खुल्लमखुल्ला परमात्मासे विमुख अपने समयके समाजसे संवर्ष हुआ तो उसने राज्यके आदेश होकर केवल पार्थिव सफलता और समृद्धिकी ओर मन की हमारे नेताके शब्दों में 'भद्र अवज्ञा" की। अपनी लगाता है त उसका पतन हो जाता है। आज जितनी बौद्धिक सचाई पर आघात होनेपर राज्यके अतिक्रमणसे लोहा आवश्यकता मानवको उसकी पूर्वावस्था लानेकी है उतनी लेनेका साहस हममेंसे कितने बुद्धिवादियोंमें है? राज्यके पाठशालाओं पुस्तकालयों या दूकानों और कारखानोंको लाने श्रादेशोंका सत्यसे विरोध होनेपर हममेंसे कितने उन आदेशों की नहीं। यदि हमें एक नवीन सार्वभौम समुदायको स्फूर्ति की अवज्ञा करते हुए शहीद होनेको तैयार हैं? प्रदान करनी है तो हमें मानवको स्फूर्ति दान करना चाहिये। हम आमाके पुजारी हैं। हमारे होठोंसे असत्यका एक माज ऐसे व्यक्तियों की संख्या बहुत है जिनकी परमात्मामें शत न निकलना चाहिये और न किसी मिथ्या विचारका प्रास्था नहीं है, जो दर्शनतत्त्वमें विश्वास नहीं रखते किन्तु प्रवेश ही हमारे मस्तिष्कमें होना चाहिये। मुझे इस बात यदि कोई हमसे यह कके कि हम नास्तिक अथवा पराङ्मुख हैं की कामना है कि हम सब राजनीतिसे ऊपर उठ कर केवल तो हम बुरा मान जायंगे। साप और प्रेम ही प्रत्येक धर्मका विश्व श्रादर्शोको ही अपनावें । एक जर्मन विचारकने कहा है उपदेश है। सत्य हमपे श्रद्धावान व्यक्रिका आदर करनेका "नये शोरगलके आविष्कारकोंके इर्दगिर्द नहीं, बल्कि नवीन प्राह करता है और प्रेम हमें मानव-जाति के सम्मानका पाठ प्रदर्शोके आविष्कारकों के इर्दगिर्द यह दुनिया घूमती हैपढ़ाता है। व्यक्रि और मानव-जाति संसारके दो स्तम्भ हैं
चुप-चाप घूमती है।" और अन्य समूह केवल बीच अध्याय ।
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