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अनेकान्त
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मिश्रित खिचड़ी भाषामें लिखे गये हैं और बहुत कुछ अशुद्ध पाये जाते हैं इनके ऊपर “हृदे (दथ)बोघ ग्रंथ कथनीयः” लिखा है । संभव है 'हृदयबोध' नामका कोई और ग्रंथ हो, जिसे वास्तवमें 'हृदयवेध' कहना चाहिये, और वह ऐसे ही दूषित मनोवृत्ति वाले पद्यों से भरा हो और ये पद्य ( जिनमें ब्रकेटका पाठ अपना है) उसीके अंश हों “सूतउत्पत्यं (सुतोत्पत्तौ ) जगत्सर्वं हर्षमानं प्रजायतेः (ते) तेरापंथी वन्क (वनिक) पुत्रं (त्रे) रोरवं देवतागणाः ।१। त्रिदश १३ पंथर तौ (ता) निशिबासराः । गुरुविवेक न जानति निष्ठुराः जप-तपे कुरुते बहु निफलां (ला) किमपि ये व (?) जना सम कांठया ॥ २ ॥ पुर्व (रुष) रीत लबै निजकामिनी प्रतिदिनं चलिजात जी (जि) नालये । गुरुमुखं नहि धर्मकथा श्रुणं नृपगृहे जिम जाति वरांगना ॥ ३ ।”
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पन्थमें रात दिन रत रहनेवाले श्रावकों पर दूषित मनोवृत्तिको लिये हुए बचन-वाणों का प्रहार करते थे— उन्हें ‘निष्ठुर' कहते थे, 'काठिया' (धर्मकी हानि करनेवाले). बतलाते थे और 'गुरु विवेकसे शून्य' बतलाते थे। साथ ही उनके जप-तप और शील. संयमादिरूप धर्माचरणको निष्फल ठहराते थे और यहाँ तक कहनेकी धृष्टता करते थे कि तेरहपंथी वनिकपुत्रकी उत्पत्तिपर देवतागण रौरव - नरकका अथवा घोर दुःखका अनुभव करते हैं, जब कि पुत्रकी उत्पत्तिपर सारा जगत हर्ष मनाता है। इसके सिवाय वे पतितात्मा उन धर्मप्राण एवं शील-संयमादिसे विभूषित स्त्रियोंको, जो धर्म के विषय में अपने पुरुषोंका पूरा अनुसरण करती थीं और नित्य मन्दिरजीमें जाती थीं किन्तु भट्टारक गुरु के मुखसे शास्त्र नहीं सुनती थीं, 'वेश्या' बतलाते थे ! – उनपर व्यंग्य कसते थे कि वे प्रतिदिन जिनालय ( जैन मंदिर ) को इस तरह चली जाती हैं जिस तरह कि राजाके घर वारांगना ( रण्डी) जाती है !!
हालमें इस भट्टारकीय मनोवृत्तिके परिचायक तीन पद्य मुझे एक गुटकेपरसे उपलब्ध हुए हैं, जो गत भादों मासमें श्री वैद्य कन्हैयालालजी कानपुरके पाससे मुझे देखनेको मिला था और जिसे सिवनीका बतलाया गया है। यह गुटका २०० वषसे ऊपरका लिखा हुआ है। इसमें संस्कृत प्राकृत आदि भाषाओं के अनेक वैद्यक, ज्योतिष, निमित्तशास्त्र और जंत्रमंत्र-तंत्रादि विषयक ग्रंथ तथा पाठ हैं । अस्तु; उक्त तीनों पद्य नीचे दिये जाते हैं, जो संस्कृत-हिन्दी
इन विषबुझे वाग्बाणों से जिनका हृदय व्यथित एवं विचलित नहीं हुआ और जो बराबर अपने लक्ष्यकी ओर अग्रसर होते रहे वे स्त्रीपुरुष धन्य हैं। और यह सब उन्हींकी तपस्या, एकनिष्ठा एवं कर्तव्यपरायणताका फल है, जो पिछले जमाने में भी धर्मका कुछ प्रकाश फैल सका और विश्वको जैनधर्म एवं तत्वज्ञान विषयक साहित्यका ठीक परिचय मिल सका। अन्यथा, उस भट्टारकीय अन्धकार के प्रसार में सब कुछ विलीन हो जाता ।
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सम्पादक
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