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________________ किरण ७-८ भट्टारकीय मनोवृत्तिका एक नमूना २८७ ग्राम, जम्बूखण्ड गण, और आर्यनन्दि आचार्यके विषयमें विशेष अनुसन्धानकी जरूरत है, उससे इतिहास-विषयपर कितना ही नवीन प्रकाश पड़ेगा। अतः विद्वानोंको इस विषयमें अवश्य प्रयत्न करना चाहिये और उसके नतीजेसे अनेकान्तको सूचित करके अनुगृहीत करना चाहिये। -सम्पादक भट्टारकीय मनोवृत्तिका एक नमूना स समय भट्टारकोंका स्वेच्छाचार अनुवादित करके उनपर टीकाएं लिखकर उन्हें बहुत बढ़ गया था-उनके आचार सवत्र प्रचारित करनेका बीडा उठाया गया था, - विचार शास्त्रमर्यादाका उल्लंघन जिससे गृहस्थजन धर्म एवं तत्त्वज्ञानके विषयको _R करके यथेच्छ रूप धारण कर रहे स्वयं समझकर ठीक आचरण करें और उसके लिये IANER थे और उनकी निरंकुश, दूषित गृहस्थो से गये बीते मठाधीश और महापरिग्रही ' एवं अवांछनीय प्रवृत्तियोंसे जैन भट्टारकोंके मुखापेक्षी न रहें, इसका नतीजा बड़ा सुन्दर जनता कराह उठी थी और बहुत कुछ कष्ट तथा निकला-गृहस्थों में विवेक जागृत हो उठा, धर्मका पीडाका अनुभव करती करती ऊब गई थी, उस जोश फैल गया, गृहस्थ विद्वानों द्वारा शास्त्रसभाएं समय कुछ विवेकी महान् पुरुषोंने भट्टारकोंके चंगुल होने लगी, भट्टारकों की शास्त्रसभाएं फीकी पड़ गई, से अपना पिण्ड छुड़ाने, भविष्यमें उनकी कुत्सित स्वतंत्र पाठशालाओं द्वारा बच्चों की धार्मिक शिक्षा प्रवृत्तियों का शिकार न बनने, उनके द्वारा किये जाने का प्रारम्भ हुआ और जैनमन्दिरों में सर्वत्र शास्त्रों वाले नित्यके तिरस्कारों-अपमानों तथा अनुचित के संग्रह, स्वाध्याय तथा नित्यवाचनकी परिपाटी कर-विधानोंसे बचने और शास्त्रविहित प्राचीन मार्ग चली । और इन सबके फलस्वरूप श्रावक जन धर्मसे धर्मका ठीक अनुष्ठान अथवा आचरण करनेके कर्ममें पहलेसे अधिक सावधान होगये—वे नित्य लिये दिगम्बर तेरहपन्थ सम्प्रदायको जन्म दिया स्वाध्याय, देवदर्शन, शास्त्रश्रवण, शील-संयमके था। और इस तरह साहसके साथ भट्टारकीय जूए पालन तथा जप-तपके अनुष्ठानमें पूरी दिलचस्पी को अपनी गदनोंपरसे उतार फेंका था तथा धर्मके लेने लगे और शास्त्रों को लिखा लिखा कर मन्दिरों मामले में भट्रारकोंपर निर्भर न रहकर उन्हें ठीक में विराजमान किया जाने लगा। इन सब बातों में प्रथमें गुरु न मानकर-विवेकपूर्वक स्वावलम्बनके स्त्रियों ने पुरुषों का पूरा साथ दिया और अधिक प्रशस्त मार्गको अपनाया था। इसके लिये भट्टारकों तत्परतासे काम किया, जिससे तेरह पन्थको उत्तरोको शास्त्रसभामें जाना, उनसे धर्मकी व्यवस्था लेना · तर सफलताकी प्राप्ति हुई और वह मूलजैनाम्नाय आदि कार्य बन्द किये गये थे । साथ ही संस्कृत- का संरक्षक बना । यह सब देखकर धर्मासनसे च्युत पाकृतके मूल धर्मग्रंथोंको हिन्दी आदि भाषाओं में हुए भट्टारक लोग बहुत कुढ़ते थे और उन तेरह Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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