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अनेकान्त
[वर्ष
शिक्षाके मौलिक रूपमें वदल गए । मानवताके पुजारियोंने के हितसाधनमें बाधा उत्पन्न होन संभवनीय है या जिसके अखिल मानवताके लिए धमका दिव्यसंदेश सुनाया । करनेसे स्वपं करने वालेको लजा या घृणा हो सके, उसे न भगवान महावीर भी धार्मिक आकाशके एक दैदीप्यमान करना ही काननकी दृष्टिसे योग्य सम्मा गया। सारांश नक्षत्र थे। सदियों पहलेसे ऐसे ही वीरपुङ्गवोंने धर्मकी ऐतिहासिक दृष्टिये मानव-समाजका जीवन एक सागरकी शीतल धारा प्रवाहित की। पतितोंका उद्धार करने, दलितोंको भाँति है, इसमें रह रह कर तरङ्ग उटती रही, जब नीतिकी बचाने, असहायको सहायता देने, पश्चात्तापकी अग्निसे न.काएं डूबने लगी तब धर्म के जहाजका अविष्कार हुआ, पाकुलित हृदयको संतोषामृतकी वृष्टिसे बुझाने प्रमाद और जब यह जहाज मंझधारमें आगया और किनारे पर पहुंचनेकी निराशाको दूर करके उत्साह, उमंग और कर्मण्यताको उम्मीद कम हो गई तो काननके बड़े बड़े जहाज विविध सिखाने और उच्च नागरिक प्रादर्शको स्थापित करनेके शस्त्रास्त्रोंसे सुसजित होकर जीवन सागरको चीरनेके लिए खयालसे धर्मका जन्म हुआ। यही नहीं किन्तु धर्ममें अवतीर्ण हुए। राजनीतिका भी प्रवेश श्रासानीसे हो गया। धार्मिक नियंत्रण से इस ऐतिहासिक खोजको यदि जैन साहित्यकी कसौटीपर लौकिक व्यवहार बंध गये, विश्वमें शान्ति स्थापित हो जाँचा जाय तो उपरोन बातोंका बहुत बड़ी हदतक समर्थन गई, संसार स्वर्गतुल्य हो गया। किन्तु काल सदासे ही हो जाता है। जैन साहित्यसे इस बातका पता चलता है परिवर्तनशील है। रूढ़ियोंने धर्मकी जगह ले ली। समयानुसार कि भारतवर्ष में पहिले तीन कालतक भोगभूमि रही है। रूढियोंमें परिवर्तन न होनेके कारण पतनका होना अनिवार्य यहाँ सा:गी प्रेम, मीति, सुख, आनन्द प्रादिका साम्राज्य हो गया। मनुष्यने अपनी मनुष्यता खो दी और जीवन था। न यहां आर्थिक अड़चनें ही थीं और न किसी प्रकारकी खतरेमें पड़ गया । धार्मिक जिम्मेदारीको भूल जानेके मंझटें। किन्तु तीसरे कालके अन्तमें लोगोंको भय पैदा कारण वातावरण प्रक्षुब्ध हो उठा, अशान्तिकी लहरें एक हुमा, अज्ञानने जोर पकड़ा, कर्तव्याकर्तब्यका भान न रहा, छोरसे लेकर दूसरे छोर तक उठने लगी । वर्तमान प्राधि- मैतिक बन्धन ढीले पड़ गये, कौटुम्बिक व्यवस्थ-नागरिक भौतिक जड़वादने एक ओर शान्ति प्रस्थापित करनेके लिए आदर्शको शान्तिके हेतु स्थापन करनेकी आवश्यकता प्रतीत भरसक प्रयत्न किया तो दूसरी ओर वासनाओंकी अग्निको होने लगी। जगतमें घोर अशान्तिके बादल मंडला रहे थे, और भी प्रज्वलित कर दिया। समति भूमण्डलपर सम्पूर्ण प्राकुलताका आधिपत्य हो चला था। ऐसे समयमें भगवान देशोंमें परस्पर सानिध्य और सम्पर्क स्थापित हो आदिनाथने जन्म लेकर-आवश्यकता, समय व परिस्थितिको जानेके कारण एकपर दूसरेकी संस्कृति, साहित्य, विचारधारा, लक्ष्य में रखते हुए-नैतिक नियोका निर्माण करके धर्मके वाणिज्य-व्यवसाय, कला कादिका प्रभाव पड़ा। विज्ञानकी मौलिक सिद्धान्तोंका प्रचार किया और भोगभूमिको कर्मजबरदस्त आँधीने जीवनकी कायापलट कर दी और सुचारु भूमिमें परिणत कर दिया । धार्मिक सिद्धान्तोंकी उत्पत्ति रूपसे सारे जगतको कार्यक्षम बनानेके लिये काननकी शरण गहरे विचारका नतीजा थी, इस लिये अब कथन और ली। जो काम प्राचीन काल में धार्मिक नियमों तथा संस्था- उपदेशसे इसका प्रचार होने लगा तथा इसकी सार्थकता
ने किया वह अब वर्तमानकाल में राजशासन द्वारा किया सिद्धान्तोंको कार्यरूपमें परिणत करनेसे होने लगी। यह जाने लगा। जहाँ नैतिक बल और धार्मिक जिम्मेदारी विचारधारा नैसर्गिक स्वाम विक तथा समयानुकूल थी। अपने अपने कालमें कामयाब रहे, वहाँ अब कानन द्वारा लोगोंने इसे हाथोंहाथ अपनाया। संसारकी समझमें यह सामाजिक, वैयनिक तथा राष्ट्रीय जीवनका नियन्त्रण किया बात आगई कि धर्म और अधर्मके आचरण का परिणाम जा रहा है। अधर्म, पाप या कर्तव्याकर्तव्यका निर्णय करनेके प्रमशः सुख और दुख होता है। इसीसे देश और समाजकी लिए कई तरहके नियम बना दिये गये और इन नियमोंकी व्यवस्था रह सकती है, संसारके लौकिक व्यवहार चल अवहेलना या उत्तरदायित्वसे च्युत होना काननकी दृष्टिसे सकते हैं। इसी तरह जब जब धार्मिक नियमोंकी अबसजा देनेके योग्य समझा गया। हमारे जिन कामोंसे समाज- हेलनाके कारण जगतमें अनीति और अशान्ति फैल जाती,
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