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किरण ६-७ ]
रक्खा है; लोकभावनाको संसारभावना के बाद न रखकर निर्जराभावना के बाद रक्खा है और धर्मभावनाको बोधि दुर्लभसे पहले स्थान न देकर उसके अन्त में स्थापित किया है जैसा कि निम्न सूत्रसे प्रकट है
प्रन्थ और प्रकार
"अनित्याऽशरण - संसारैकत्वाऽन्यत्वाऽशुच्या ssस्रव-संवर- निर्जरा-लोक- बोधिदुर्लभ - धर्मस्वाख्यात - तस्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥ ६-७”
और इससे ऐसा जाना जाता है कि भावनाओंका यह क्रम, जिसका पूर्व साहित्यपरसे समर्थन नहीं होता, बाद को उमास्वातिके द्वारा प्रतिष्ठित हुआ है । कार्तिकेयानुप्रेक्षामें इसी क्रमको अपनाया गया. । अतः यह ग्रन्थः उमास्वातिके पूर्वका नहीं बनता । तब यह उन स्वामिकार्तिकेयकी कृति भी नहीं हो सकता जो हरिषेणादि कथाकोषोंकी उक्त कथाके मुख्य पात्र हैं, भगवती श्राराधनाकी गाथा नं० १५४६ में 'अग्निदयित' (अग्निपुत्र) के नामसे उल्लेखित हैं अथवा अनुत्तरोपपाददशाह में वर्णित दश अनगारोंमें जिनका नाम है। इससे अधिक ग्रन्थकार और प्रन्थके समय-सम्बन्ध में इस क्रमविभिन परसे और कुछ फलित नहीं होता ।
अब रही दूसरे कारण की बात, जहाँ तक मैने उसपर विचार किया है और ग्रन्थको पूर्वापर स्थितिको देखा है उस परसे मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि ग्रंथ में उक्त गाथा नं० २७६ की स्थिति बहुत ही संदिग्ध है और वह मूलत: ग्रंथका अंग मालूम नहीं होती—बादको किसी तरहपर प्रक्षिप्त हुई जान पड़ती है । क्योंकि उक्त गाथा 'लोकभावना' अधिकारके अन्तर्गत है, जिसमें लोकसंस्थान, लोकवर्ती जीवादि छह द्रव्य, जीवके ज्ञानगुण और श्रुतज्ञानके विकल्परूप नैगमादि सात नय, इन सबका संक्षेप में बड़ा ही सुन्दर व्यवस्थित वर्णन गाथा नं० ११५ से २७८ तक पाया जाता है । २७८ वीं गाथामें नयोंके कथनका उपसंहार इस प्रकार किया गया है:
एवं विविहरणएहि जो वत्थू व बहरेदि लोयम्मि । दंसण-गारण चरितं सो साहदि सम्ग- मोक्खं च ॥
इसके अनन्तर 'विरला शिसुहिं तच्च' इत्यादि • गाथा नं. २७६ है, जो औपदेशिक ढंगको लिये हुए है और sist तथा इस अधिकारकी कथन- शैलीके साथ कुछ संगत
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मालूम नहीं होती - खासकर क्रम प्रत गाथा नं० २८० की उपस्थितिमें, जो उसकी स्थिति को और भी सन्दिग्ध कर देती है, और जो निम्न प्रकार है:
तच्च कहिज्जमाणं णिच्चलभावेण गिद्धदे जो हि । तं चि भावेइ सथा सो वि य तत्त्वं वियागेई ॥
||२=०||
इसमें बतलाया है कि, 'जो उपर्युक्त तत्वको — जीवादिविषयक तस्वज्ञानको अथवा उसके मर्म को— स्थिरभावसे— ताके साथ — ग्रहण करता है और सदा उसकी भावना रखता है वह तस्वको सविशेष रूपसे जाननेमें समर्थ होता है।
इसके अनंतर दो गाथाएँ और देकर 'एव लोयसहावं जो भायदि' इत्यादि रूपसे गाथा नं७ २८३ दी हुई है, जो लोकभावनाके उपसंहारको लिये हुए उसकी समाप्ति-सूचक है और अपने स्थानपर ठीक रूपसे स्थित है। वे गाथाएँ इस प्रकार हैं:-- it
को
at इथि कस्स ए मयणेण खंडियं माणं । इंदिपडिंग जिमो को या कसाएहि संतप्तो । २८१| सो वसो इत्थिजणे स ग जिओ इंदिएहि में हेा । जो ण य गिहृदि गंथं श्रब्भतर बाहिरं सव्वं १२.२। इनमेंसे पहली गाथामें चार प्रश्न किये गए हैं- १ कौन सीजनों के वशमें नहीं होता ? २ मदन- काम देवसे किसका मान खंडित नही होता १, ३ कौन इन्द्रियोंके द्वारा जीता नहीं जाता ?, ४ कौन कषायोंसे संतप्त नहीं होता ! दूसरी गाथ में केवल दो प्रश्नोंका ही उत्तर दिया गया है जो कि एक खटकने वाली बात है, और वह उत्तर यह है कि स्त्रीजनोंके वशमें वह नहीं होता और वह इन्द्रियों से जीता नहीं जाता जो मोहसे बाह्य और आभ्यन्तर समस्त परिग्रहको ग्रहण नहीं करता है।'
इन दोनों गाथाकी लोकभावनाके प्रकरण के साथ कोई संगति नहीं बैठती और न ग्रन्थमें अन्यत्र ही कथनकी ऐसी शैलीको अपनाया गया है। इससे ये दोनों ही गाथाएं स्पष्ट रूपसे प्रक्षिप्त जान पड़ती हैं और अपनी इस प्रक्षिप्तताके
कारण उक्त 'विरला गिसुखहिं तच्च' नामकी गाथा म० २७६ की प्रक्षिप्तताकी संभावनाको और दृढ करती हैं। मेरी रायमें इन दोनों गाथाओं की तरह २७६ नम्बरकी गाथा भी प्रक्षिप्त है, जिसे किसीने अपनी ग्रन्थप्रतिमें अपने उपयोग के
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