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________________ २३ ३ सूत्र में 'संजद' पदका विरोध क्यों ? (ले०-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया) 'षट्खण्डागम' के उल्लिखित ६३ वें सूत्रमें 'संजेद' है। उन्होंने मनुष्यगतिसम्बन्धी उन पाँचों ही-to, पद है या नही? इस विषयको लेकर काफी अरसेसे चर्चा ११,६२ ६३-सूत्रोंको द्रव्य-प्ररूपक बतलाया है। परन्तु चल रही है। कुछ विद्वान् उक्त सूत्रमें 'संजद' पदकी हमें अंब भी ऐसा जरा भी कोई स्रोत नहीं मिलता, जिमसे अस्थिति बतलाते हैं और उसके समर्थन में कहते हैं कि उसे 'द्रव्यका ही प्रकरण' समझा जा सके । हम उन प्रथम तो वहाँ द्रव्यका प्रकरण है. अत एव वहाँ द्रव्य- पाँचों सूत्रोको उत्थानिका-वाक्य सहित नीचे देते हैं:स्त्रियोंके पाँच गुणस्थानोंका ही निरूपण है । दूसरे, "मनुष्यगतिप्रतिपादनार्थमाहषटखण्डागममें और कहीं आगे-पीछे द्रव्य स्त्रियों के पाँच मणुस्सा मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदगुणस्थानोंका कथन उपलब्ध नहीं होता । तीमरे, वहाँ सम्माइट्टि-वाणे सियो पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ८ell सत्रमें पर्याप्त' शब्दका प्रयोग है जो द्रव्यस्त्रीका ही बोधक तत्र शेषगणस्थानसत्त्वावस्थाप्रतिपादनार्थमाहहै। चौथे, वीरसेनस्वामीकी टीका उक्त सूत्रमें 'संजद' पदका सम्मामिच्छाइटि-संजदासंजद-संजद-ट्ठाणे णियमा समर्थन नहीं करती, अन्यथा टीकामै उक्त पदका उल्लेख पज्जता ॥६॥ अवश्य । होता पाँचवे, यदि प्रस्तुत सूत्रको द्रव्यस्त्रीके गुग्णस्थानीका प्ररूपक-विधायक न माना जाय और चूंकि मनुष्यविशेषस्य निरूपणार्थमाहषटखण्डागर्म में ऐसा और कोई स्वतंत्र सूत्र है नहीं जो ... एवं मणुस्सपज्जत्ता ॥११॥ द्रव्यस्त्रियों के पाँच गुणस्थानोंका विधान करती हो, तो मानुषीषु निरूपणार्थमाहदिगम्बर पर मंगके इस प्राचीनतम सिद्धान्त ग्रन्थ षट्खण्डा मासिणीस मिच्छाइट्रि-सासणसम्माइट्टि-ट्ठाणे गमसे द्रव्यस्त्रियों के पांच गुणस्थान सिद्ध नहीं हो सकेंगे सिया पजत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाभो ॥१२॥ और जो प्रो. हीरालालजी कह रहे है उसका तथा श्वेताम्बर तत्रैव शेषगुणविषयाऽऽरेकापोहनार्थमाहमान्यताका अनुषंग अवेिगा । अत: प्रस्तुत E३ सूत्रको । सम्मामिच्छाइट्रि-असंजदसम्माइट्टि-संजदासंजद - 'संजद' पदसे रहित मानना चाहिये और उसे द्रव्यस्त्रियोंके संजद-ट्टाणे णियमा पजत्तियागो || पाँच गुणस्थानोंका विधायक समझना चाहिये। -धवला मु० पृ. ३२६-३३२ । उक्त दलीलोंपर विचार ऊपर उद्धृत हुए मूलसूत्रों और उनके उत्थानिका वाक्योंसे यह जाना जाता है कि पहल' (८८) और दूसरा १-षट्खण्डागमके इस प्रकरणको जब हम गौरसे (६०) ये दो सूत्र तो सामान्यतः मनुष्यगति--पर्यातकादिक देखते हैं तो वह द्रव्यका प्रकरण प्रतीत नहीं होता। मेदसे रहित (अविशेषरूपसे) सामान्य मनुष्य के प्रतिपादक मूलग्रन्थ और उसकी टीकामें ऐसा कोई उल्लेख अथवा हैं । और प्रधानताको लिये हुए वर्णन करते हैं । प्राचार्य संकेत उपलब्ध नहीं है जो वहाँ द्रव्यका प्रकरण सूचित वीरसेनस्वामी भी यही स्वीकार करते हैं और इसीलिये करता हो। विद्वद्वर्य पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने हाल में वे मनुष्यगतिप्रतिपादनार्थमाई' (८६) तथा 'तत्र (मनुष्य'जैनबोधक' वर्ष ६२, अंक १७ और १६ में अपने दो गतौ) शेषगुणस्थानसवत्तवस्थाप्रतिपादनार्थमाह', (६०) लेखों द्वारा द्रव्यका प्रकरण सिद्ध करनेका प्रयत्न किया इसप्रकार सामान्यतया ही इन सूत्रोंके मनुष्यगतिसम्बन्धी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527238
Book TitleAnekant 1946 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1946
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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