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युगवीर-निबन्धावली
अग समझा जाता है । लेखक उमसे स्वयको उपकृत अनुभव करता है, नबक लेता है और जितीयादि नमरणाम जपनी कृतिको वताये गये दोपात्रुटियो आदि से नुक्त करने का प्रवास करता है। समालोचनासे पुस्तका प्रचार भी बढ़ता है और पाठको को उनका मही मूल्याङ्कन करने और उससे लाभ उठानेमें सहायता मिलती है । लेखकले 'जह भले हो कुछ ठेन लगे, किन्तु एक स्तरीय समालोचनासे लेखक प्रराशक जार पाटक सभी निशादर्णन प्राप्त करते है । अत्रेजी आदि विदेशी भापाओमे ही नही, देगी भापाजोमें और स्वय हिन्दी साहित्यिक जगतमे इधर, कुछ दशकोमे समालोचना-शान और कलाने प्रभूत विकास किया है। मुख्तार सा० के तहिपयक निबन्धोंको पढकर यह महज जाना जा माहता है कि वह समालोचना-शास्त्र और नमालोचना-कलाके भी इस समाजमें एकमात्र नहीं तो सर्वश्रेष्ठ पनि रही है । दुर्भाग्यसे समाजके विद्वानो और लेखकोंने उनके इस गुणका भी यथाचित ताम नहीं उठाया ।
तीसरे विभागमे १७ स्मृति-परिचयात्मक निवन्ध सकलित है, जिनमे विभिन्न सुहृद्जनो-परिजनो महयोगी अथवा सम्पर्कमे आये विद्वानो वा अन्य व्यक्तियोका उनके अभिनन्दनमें अथवा उनके निधनोपरान्त श्रद्धाजलि आदिके रूपमे सस्मरण है । ये निवन्ध बहूत कुछ आत्मीयता लिये हुए हैं । इनमेसे 'सन्मति-विद्या-विनोद' निवन्ध तो ऐसो करुणोत्पादक एव व्यक्तिगत रचना है जा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीकी इस उक्तिको चरितार्थ करती है कि "व्यक्तिगत निवन्ध 'निवन्ध' इसलिये हैं कि वे लेखकके नमूचे व्यक्तित्वसे सम्बद्ध होते हैं, लेखककी सहृदयता और चिन्तनशीलता ही उसके बन्धन है ।" एक तवेदनशील पाठक सहज ही अनुभव कर सकता है कि स्त्री एव सन्तानके वियोगकी टीसको चिरकाल और चिरसाधना भी सर्वथा शान्त जरनेमे किस प्रकार असमर्थ रहते है। इस विभाग के दो निबन्धोमें राजगृह एव कलकत्तामे हुए प्रथम वीरशासन-महोत्सबके हृदयग्राही सजीव वर्णन हैं। ये निवन्ध भी व्यक्तिगत कोटिके ही निवन्ध हैं।
चौथे विभागमे ७ शिक्षाप्रदनिबन्ध हैं जिनमें हास्य-व्यग्यका भी पुट है, जो उन्हे शिक्षाप्रद होनेके साथ ही साथ मनोरजक भी बना देता है। अतिम 'विभागमे १२ प्रकीर्णक या फुटकर निवन्ध हैं । ये भी समयोपयोगी हैं ।