Book Title: Yugveer Nibandhavali Part 2
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ १२ युगवीर - निबन्धावली आज भी जैन समाजमे यह एक कमी है कि सब निगुरे है । कोई उस्ताद बनाना नही चाहता, उस्तादकी कमचियो खाना तो दरकिनार । 1 मुख्तार साहव सुप्रसिद्ध हिन्दी सम्पादक स्व० प० महावीरप्रसाद द्विवेदीके समकालीन रहे है | द्विवेदीजीने जिसप्रकार सुधार - सुधारकर अनेक हिन्दी लेखकोका निर्माण किया और हिन्दी जगतको उपकृत किया, उसीप्रकार मुज्जार साहब भी जैन सुलेखकोका एक अच्छा वर्ग तैयार करने में प्रयत्नशील थे | शब्दविन्यास, वाक्य-मगठन, विभक्तियोका प्रयोग, विरामचिह्न, पाठशुद्धि, इत्यादि सभी छोटी-बडी वातोपर उनकी दृष्टि रहती थी और उन सबका उन्होंने स्तरीकरण किया। शोधखोजको प्रगतिपर भी उनकी दृष्टि बराबर लगी थी और वह नही चाहते थे कि उनके पत्रके किसी भी लेख कोई लचर वात, भ्रामक या त्रुटिपूर्ण कथन अथवा अप्रामाणिक तथ्य जाय । किन्तु जैन समाजका दुर्भाग्य है कि वे अपनी इस सदाशयताके लिये भी अपने समकालीन जैनविद्वानोंके कोपभाजन ही बने आजतक भी अनेक विद्वान उनकी तथाकथित कमचियो की मारकी तिलमिलाहट शायद नही भूलपाये हैं और उनसे रुष्ट चले आते हैं। इससे जैन पत्रकारिताका अहित ही हुआ है । मुनियों और त्यागियोकी शास्त्र - प्रतिकूल प्रवृत्तियो - पर भी मुख्तार साहबने पर्याप्त लिखा, उच्च-नीच गोत्र, दस्सा-वीसा, शुद्र और म्लेच्छ - विपयक प्रचलित भ्रान्त धारणओको दूर करनेका प्रयत्न उन्होंने इनमेसे कई लेखोमे किया है । इस कारण भी अनेक श्रीमान और पुरानी शैली अधिकाश पडित उनसे अप्रसन्न हुए और अभीतक अप्रसन्न हैं | कानजी स्वामीकी विचारधाराको लेकर इधर लगभग दो दशक से समाजमे एक नया बवडर उठा हुआ है । इस विभागके अतिम दो लेखोमे मुख्तार साहबने जिस सुन्दरताके साथ कानजीस्वामीको चुनौती दी है और उनसे सम्बन्धित वस्तुस्थितिको स्पष्ट किया है, वह इस विपयमे अन्तिम शब्द समझा जा सकता है । अच्छा हो यदि कुछ पत्र जो व्यर्थ एव वीभत्स, बहुधा हास्यप्रद, खडनमंडन और गालीगलौज में फँसे हुए हैं उस समस्त अशोभनीय प्रवृत्तिको त्यागकर मुख्तार साहबके ही दृष्टिकोणको स्थिरचित्तसे अपनायें और अपनी शक्ति अन्य सृजनात्मक कार्यों में लगायें ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 881