Book Title: Yugveer Nibandhavali Part 2
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ प्राक्कथन पत्रमे प्रकाशित लेखोपर यथावश्यक सम्पादकीय टिप्पणियाँ लगादेनेके कारण कुपित हुए उक्न लेखोंके लेखको और उनके समर्थकोका समाधान करनेके लिये लिखे गए थे । स्व० वैरिस्टर चम्पतरायजीने मुन्नार साहनकी इस सम्पादकीय हरकतके लिये उन्हे 'मकतवका मीलबी' और उनकी उक्त टिप्पणियोको 'मौलवीकी कमचियाँ' कहकर ऐसा कटु व्यग्य किया था कि उससे एकवार तो मुख्तार सा० भी, लगता है, तिलमिला गये थे । किन्तु मुख्तार साहब जो करते थे उसमें अनुचित क्या था, समझमे नहीं आया। एक सक्षम एव कुशल सम्पादकका तो यह कर्तव्य है ही कि वह जिन लेखोको अपने पत्रकी नीति-रोति और स्तरकी दृष्टिसे उपयुक्त समझे उन्हे ही स्वीकार करे, उनका भापा आदिकी दृष्न्सेि यथासभव ऊपरी सशोधन, परिष्कार आदि करे, और यदि लेखाका कोई मन्तव्य भामा अथवा सदोप जान पडे तो उसपर यथावश्यक उपयुक्त पादटिप्पणि भी लगा दे। जैनपत्रकारो एव सम्पादकोमें मूर्धन्य मुख्तार माहब यही सब करते थे, जिसमें पर्याप्त समय और श्रम लगता था, और जिसके लिये उन लेखकोको उनका आभार मानना था न मि कुपित होना था। एक वार स्व० बा० अजितप्रसादजीसे हमने कहा था कि आप अपने जैनगजट ( अंग्रेजी )में नवयुवक लेखकोंके लेख छापकर उन्हें प्रोत्साहन क्यो नही देते, तो उन्होंने उत्तर दिया 'भई, मैं अपने पनको तरितये मश्क नहीं बनाना चाहता।' उस समय तो वात बुरी लगी-यदि कोई भी पत्र-पत्रिका तन्नियेमश्क ( अभ्यासपट्टिकाः) बननेके लिये तैयार न हो तो नवीन लेखकोका निर्माण कैसे हो ? किन्तु वातका दूसरा पहलू भी तो है । एक सम्पादकका यह कर्त्तव्य भी तो है कि अथक परिश्रम-द्वारा अपने पत्रको शने शनै जिस स्तरपर वह ले आया है उम स्तरको वह गिरने न दे। जिन स्तरीय लेखकोका सहयोग प्राप्त करने में वह सफल होगया है और उसके जो पाठक हैं उन सबके प्रति भी तो वह उत्तरदायी है। और जैनसमाजमें 'अनेकान्त' जैसा पत्र तो मुख्तार साहबके हाथोमे साहित्यिक-ऐतिहासिक-सास्कृतिक शोधखोजका एक प्रमुख साधन वनगया था। उक्त शोधखोजकी प्रगति तो इस प्रकार लेखोंके उत्तर-प्रत्युत्तर, स्पष्टीकरण आदिके द्वारा हो सभव थी।

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 881