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प्राक्कथन
जैन समाजकी तत्तत्कालीन गति-विधियो, आन्दोलनो, समस्यामो आदिका भी एक अच्छा प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करते हैं। ____ मुख्तार साहबके ३२ निवन्धोका एक संग्रह करीव ७५० पृष्ठका 'जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश-प्रथम खण्ड' शीर्षक से १९५६ ई० में प्रकाशित हुआ था (दूसरा खण्ड अभी प्रकाशित होनेको हैं )। तदुपरान्त 'युगवीर-निवन्धावली-प्रथम खण्ड' के रूपमें उनके ४१ अन्य मौलिक निवन्धोका संग्रह १९६३ ई० में प्रकाशित हुआ। इस सग्रहके निवन्धोका विषयवार कोई वर्गीकरण नहीं किया गया था और उनमें सयाजसुधार, अधविश्वाओ एव अज्ञानपूर्ण-मान्यताओ-प्रथाओ आदिकी तीब्र आलोचना, राष्ट्रीयतापोपण एव राजनीतिक दशा, हिन्दीप्रचार, जैननीति, जैन उपासनाका स्वरूप, जैनी भक्तिका रहस्य इत्यादि अनेक उपयोगी विपयोका समावेश हुआ है। जैसा कि उक्त संग्रहके 'नये युगकी झलक' नामक प्राक्कथन में डा० हीरालालजीने कथन किया है.--"इन पुराने लेखोमे ऐतिहासिक महत्त्वके अतिरिक्त वर्तमान परिस्थितियोंके सम्बन्धमें भी मार्गदर्शनकी प्रचुर सामग्री उपलब्ध है।" इसी शृखलामें अव उक्त 'युगवीरनिवन्धावली' का यह द्वितीय खण्ड प्रकाशित हो रहा है, जिसमें मुख्तार साहबके अन्य ६५ निवन्ध-लेखादि सग्रहीत हैं। इन निवन्धोको उत्तरात्मक, समालोचनात्मक, स्मृति-परिचयात्मक विनोद-शिक्षात्मक एव प्रकीर्णक-इन ५ विभागोमे वर्गीकृत किया गया है।
प्रथम वर्गके निवन्ध प्राय कई विभिन्न विद्वानो-द्वारा मुख्तार साहबपर या उनके लेखोपर किये गये आक्षेपोंके उत्तर-प्रत्युत्तर-रूपमें हैं। भाषा और शैली पर्याप्त तीखी है। जैसा सवाल हो उसका वैसा ही करारा जवाब ‘देने में वे कभी नही चूके। जिसे मुंहतोड़ जवाब कहते हैं उसकी बानगी इस वर्गके लेखोमें स्थान-स्थान पर चखी जा सकती है। गालीगलौजका उत्तर वे वैसी ही गालीगलौजसे नही देते, किन्तु उनकी उत्तरात्मक शिष्ट-भाषा भी इतनी तीखी और व्यग्यपूर्ण होती है कि जिसके प्रति उसका प्रयोग हुआ है वह तिलमिलाये विना नहीं रह सकता। प्रारभ के ४ निबन्ध १९१३ और १९२५ के वीच लिखे गये हैं और उनमे समाजमें प्रचलित