________________
“वीतराग ! सपर्याऽपि तवाज्ञापालनं परम् ।।" अर्थात, “हे वीतराग ! तमारी आज्ञानु श्रेष्ठ पालन (ए) पण (तमारी) पूजा छे.”
अर्थसंदर्भ केटलो बधो बदलाइ गयो ! अने हवे श्री हरिभद्राचार्यना “पुष्पाद्यर्चा तदाज्ञा च.” ए श्लोकथी जेओ परिचित हशे तेमने तो परमात्मानी हरिभद्राचार्य-सूचित पुष्पपूजामां एक प्रकार “प्रभुआज्ञानु पालन” छे ते स्मरणमां हशे ज | ए ज वात अहीं हेमाचार्ये करी छ । आवी मार्मिक वातने आपणे त्यां प्रवर्तेला सुगम अने स्थूल पाठभेदे केटली बधी फेरवी दीधी छे ! सुज्ञोए आ मूळ पाठने पाछो अपनाववो ज घटे, एमां ज शास्त्रशुद्धि ने शास्त्रनी वफादारी गणाय ।
पण संशोधननी आ एक मजा छे | मूळ कर्ताए जुदा ज शब्दो के भावो आलेख्या होय; कालांतरे - समय जतां - ते कृति लोकप्रिय ने लोकभोग्य बने अने तेमां क्यारेक लेखदोषथी तो घणीवार कोइना हस्तक्षेपने कारणे आवा नानकडा फेरफारो थइ जाय, अने पछी तो ते ज मूळ कर्ताना पाठ तरीके अपनावाइ जाय; ए स्थितिमां जूनी-नवी प्रतिओ एकत्र करीने मूळ के साचो - कर्ताने अभिप्रेत - पाठ कयो हशे, ते खोळी काढq - ते पण बहु महत्त्वनी ने रसदायक शास्त्रसेवा छे ।
अहीं जे थोडाक पाठांतरो मल्या छे तेमां खंभातना तथा पाटणना भंडारनी ताडपत्र प्रतिओनो मुख्यत्वे उपयोग थयो छ । प्रस्तुत पद्यानुवादनी पूर्वभूमिका
अगाउ कहुं छे तेम 'वीतराग स्तव' जैन संघनी परंपरागत लोकप्रिय रचना रही छे, अने तेनुं आकर्षण आजे पण घj घणुं छे । आ रचना उपर संस्कृत टीकाओ तो अनेक रचाइ ज छे, परंतु तेना हिंदी-गुजराती विवेचनो के अनुवादो पण विविध लेखकोए कर्या छे | उपरांत आ रचनाना पद्यानुवादो पण थया छे, जेमां सन्मित्र श्री कर्पूरविजयजी महाराजनो तथा डॉ. भगवानदास म. महेतानो गुर्जर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org