Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 51
________________ यह पूर्णचन्द्रसदृश-धवल विलसे चमरकी श्रेणियां जिनचन्द्र ! हे निस्तन्द्र ! दोनों ओर ऐसी आप की । मानों तुम्हारे मुख-कमलकी सेवनामें लीन यह है पंक्ति हंसोकी धवलतम सेविका विभु ! आपकी ।। ४ ।। मृगेन्द्रासनमारूढे, त्वयि तन्वति देशनाम् । श्रोतुं मृगाः समायान्ति, मृगेन्द्रमिव सेवितुम् ॥ ५॥ मणिरत्नस्वर्ण-रचित खचित-तेजोवलयसे तू जभी सिंहासनों पर बैठकर विभु ! देशना देता तभी । आवे श्रवणको हरिणगण उत्कर्ण बन, मानों लगे जो सिंह सिंहासन उपर, उनकी सुसेवाके लिए ।। ५ ।। भासां चयैः परिवृतो, ज्योत्स्नाभिरिव चन्द्रमाः । चकोराणामिव दृशां, ददासि परमां मुदम् ॥६॥ ज्यूं धवल-ज्योत्स्ना-कलित पूनमका मधुरतम चन्द्रमा अपने परम प्रेमी चकोरोंको दिए भारी मुदा । इसविध तुम्हारा दिव्य लोकोत्तर प्रभामंडल प्रभो ! भाविकजनोंके नयनको आनन्ददायक है अहो ! ।। ६ ।। दुन्दुभिर्विश्वविश्वेशपुरो व्योम्नि प्रतिध्वनन्। जगत्याप्तेषु ते प्राज्य - साम्राज्यमिव शंसति ॥७॥ हे विश्वनायक पूर्णलायक मोक्षदायक नाथजी ! यह आपके सन्मुख सुखद जो दिव्य-दुन्दुभि है बजी । “आप्तों बहुत, पर श्रेष्ठ उनमें है यही जिनराज ही" यह खबर सारे खलकको मानों सतत वह दे रही ! ।। ८ ।। १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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