Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 80
________________ चिरकाल से मालिक ! जिन्होंने साथ तो तुज को दिया उन विषय-भोगोंके उपर वैराग्य तुमने पा लिया । शायद कभी भी मुख न देखा योग का था आपने तादात्म्य कैसे हो गया उसका अहो ! फिर आपसे ? || ४ ।। तथा परे न रज्यन्त, उपकारपरे परे। यथाऽपकारिणि भवान, अहो ! सर्वमलौकिकम् ॥५॥ अपकार तुज पर जो करे उनके उपर भी तू यथा करुणा वहावे हे अकारण-जगत-बन्धु ! नहीं तथा ! उपकारियों पर भी कभी करते सभी उपकार वे परतीर्थिकों, सब ही अलौकिक आपका भगवंत हे ! || ५ ।। हिंसका अप्युपकृता, आश्रिता अप्युपेक्षिताः । इदं चित्रं चरित्रं ते, के वा पर्यनुयुञ्जताम् ॥६॥ जो मारने आये तुम्हें उनको बचाये आपने फिर आश्रितों की भी उपेक्षा की कदाचित आपने | अतिगहन और विचित्र तेरा यह चरित्र निहारकर सब स्तब्ध हैं, नहि पूछ भी १सकते कि ऐसा क्यों मगर?।। ६ ।। तथा समाधौ परमे, त्वयाऽऽत्मा विनिवेशितः । सुखी दुःख्यस्मि नास्मीति, यथा न प्रतिपन्नवान् ।। ७ ।। ऐसी अचल-अविकल्प-अनुपम नाथ ! परम समाधि में आत्मा प्रतिष्ठित आपने कर दी स्वयं-अनुभूतिमें | जिससे कि सुख या दुःखका अनुभव न रह पाया तुझे अनुभूति यह बखशो मुझे भी देव हे करुणानिधे! ।।७।। ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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