Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 84
________________ भुवे तस्यै नमो यस्यां, तव पादनखांशवः । चिरं चूडामणीयन्ते, ब्रूमहे किमतः परम् ! ॥८॥ तुज चरणके नख-किरण बनते सरमुकुट जिस भूमिके उस भूमिको शत शत करूं प्रणिपात मैं जगतात हे ! | हे अभय ! अस्मय! अक्षय! अव्यय! सदय ! चिन्मय! देव हे! इससे अधिक कुछ बोलना अब उचित नहि लागत मुझे ।। ८ ।। जन्मवानस्मि धन्योऽस्मि, कृतकृत्योऽस्मि यन्मुहुः । जातोऽस्मि त्वद्गुणग्राम-रामणीयकलम्पटः ॥९॥ तेरे अनघ-गुणवृन्द-की रमणीयताका आज मैं आशिक बना हूं नाथ ! मेरे हृदयके सरताज हे ! जन्म मेरा आज सार्थक, धन्य मैं, कृतकृत्य मैं हे देव ! त्रिकरण-योग से अब बन चुका तुज भृत्य मैं ।। ९ ।। इति भक्तिस्तवः ॥ श्री हेमचंद्राचार्य राजा कुमारपाळ ४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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