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नहि अन्य-देवों सा घृणास्पद आचरण है आपका जो देखकर ही कांपते थर थर सभी-सज्जन-महा । विभु ! और-देवों-के मुआफिक आप ना वरदान दो नाराज होकर फिर किसीको शाप भी ना आप दो ।। ४ ।। न जगज्जननस्थेम,- विनाशविहितादरः । ना लास्यहास्यगीतादिविप्लवोपप्लुतस्थितिः ||५|| विभु ! आप कैसे देव हो ? जो जगतके-निर्माण या पालन अगर संहारका कर्तृत्व नहि रखते कदा । उपहास एवं नृत्य-तांडव, गान-मुजरा का तथा बेशरम-वर्तन आपमें दिखता न, औरों में यथा ।।५।। तदेवं सर्वदेवेभ्यः, सर्वथा त्वं विलक्षणः । देवत्वेन प्रतिष्ठाप्यः, कथं नाम परीक्षकैः ? ॥६॥ इस तरह दुनियाके सभी भी देवताओं से जुदा एवं विलक्षण तू बना है हे परमगुरु !, या खुदा ! । ऐसे विलक्षण देवको अब सब परीक्षक लोग तो कैसे प्रमाणित देवताके-रूपमें करते ? कहो! ॥६।। अनुश्रोतः सरत् पर्ण- तृणकाष्ठादि युक्तिमत्। प्रतिश्रोतः श्रयद्वस्तु, कया युक्त्या प्रतीयताम् ? |॥७॥ अनुरूप वारि-प्रवाहमें जो तृण वगैरह तैरते वे लक्ष्यहीन भले रहे तो भी कहीं तो पहुंचते । विपरीत-किन्तु प्रवाहमें जो तैरता है वह अगर है पहुंचता निज लक्ष्य पर, यह मानना कैसे मगर ? || ७ ।।
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