Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 99
________________ तव प्रेष्योऽस्मि दासोऽस्मि, सेवकोऽस्म्यस्मि किङ्करः । ओमिति प्रतिपद्यस्व, नाथ ! नाऽतः परं ब्रुवे ॥ ८ ॥ मैं आपका नाचीज हलकारा तथा हूं दास भी फिर आपके पद-युगलका सेवक व किंकर भी सही । इस बातका हे तातजी ! इकबार कर स्वीकार लो कुछ भी कभी भी बादमें नहि मैं कहूंगा आपको || ८ || श्री हेमचन्द्रप्रभवाद्द, वीतरागस्तवादितः । कुमारपालभूपालः, प्राप्नोतु फलमीप्सितम् ॥ ९ ॥ श्री हेमचन्द्राचार्यके द्वारा रचित जिनराज के इस मधुर सुन्दर " वीतराग स्तोत्र" के माहात्म्य से । श्री कुमरपाल नृपति परम-आर्हत दयापालक अहो ! पाओ अभीप्सित फल हमेशा, कामना यह है विभो ! || ९ || इतिआशी: स्तवः ॥ - श्री वीतराग-भदंतका अतिमधुर जो यह स्तोत्र था अनुवाद उसका पद्यमय यह राष्ट्रभाषामें बना । गुरुदेवकी थी प्रेरणा करुणा तथा जिनदेव की उसकी वजहसे ही अबुध-शीलेन्दुने रचना करी Jain Education International श्री हेमचंद्राचार्य राजा कुमारपाळ १. है - पाठां ॥ २. घाव, अब वह भी सहूं / फिर, वह भी सहूं - पाठां ॥ ६४ For Private & Personal Use Only 11 www.jainelibrary.org

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