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विंशतितमः प्रकाश : || पादपीठलुठन्मूर्ध्नि, मयि पादरजस्तव । चिरं निवसतां पुण्य - परमाणुकणोपमम् ॥१॥ मैं टेकता हूं शीश मेरा देव ! तव पदपीठ पर तुझ चरणधूली बरसने दो अब विभो ! उसके उपर | वह धूलिकण बन जाएगा मेरे लिए चिरकाल तक तेरी कृपासे नाथ ! मेरे पुण्यका परमाणु-कण ।।१।। मदृशौ त्वन्मुखासक्ते, हर्षबाष्पजलोर्मिभिः । अप्रेक्ष्यप्रेक्षणोद्भुतं, क्षणात् क्षालयतां मलम् ॥२॥ मेरी निगाहें आपके मुख-चन्द्र पर आसक्ति से है चिपकती फिर भीगी होती हर्ष एवं भक्ति से । चिरकाल से नहि-देखने-लायक-बहुत कुछ देखते जो मैल एकट्ठा हुआ, लगता कि धोती वे उसे ।। २ ।। त्वत्पुरो लुठनैर्भूयान, मद्भालस्य तपस्विनः । कृतासेव्यप्रणामस्य प्रायश्चित्तं किणावलिः ॥३॥ तेरे चरणके सामने भूलुठन मैं करता रहूं मेरे ललाट उपर पडे जो घावर उससे, वह सहूं | सेवा-न-करने-योग्यकी जो-सेवना मैंने करी वह घाव प्रायश्चित्त बन जाओ उसीका देव री ! || ३ ।। मम त्वदर्शनोद्भूता- श्चिरं रोमाञ्चकण्टकाः | नुदन्तां चिरकालोत्था मसदर्शनवासनाम् ॥४॥
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