Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 96
________________ हित्वा प्रसादनादैन्य मेकयैव त्वदाज्ञया । सर्वथैव विमुच्यन्ते, जन्मिनः कर्मपञ्जरात् ॥८॥ जो दीन बन सकता स्वयं वह ही किसी भी देव को संतुष्ट करके पा सके वरदान मनचाहा विभो ! । ४झंझट अगर सब छोड बस आज्ञा तुम्हारी मान ले तो कर्म-पिंजरसे सभीको मोक्ष झटपट आ मिले ।। ८ ।। इति आज्ञास्तव : ॥ ALS श्री हेमचंद्राचार्य राजा कुमारपाळ १. फल दे सके वह, तो परम चैतन्यमय जिन क्यों न दे ? - पाठां. ।। २. परमऊर्जासभर-- पाठां. ।। ३. यह दूसरा उसका चरण - पाठां. ।। ४. झंझट सभी यह छोड कर गरतव वचनकी सेवना की जाय तो सबकी फलेगी परमपदकी खेवना- पाठां. ।। ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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