Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 94
________________ एकोनविंशः प्रकाश : ॥ तव चेतसि वर्त्तेऽहमिति वार्ताऽपि दुर्लभा । मञ्चित्ते वर्त्तसे चेत्त्व - मलमन्येन केनचित् ॥ १ ॥ हे सांइ दुनियाके ! तुम्हारे हृदयमें मेरा स्मरण हो जाय ऐसी बात भी है परम दुर्लभ कोइ दिन । पर मुझ हृदयमें अगर होगी आपकी पधरामणी तो काम क्या है दूसरोंका ? आप बस मेरे धनी ॥ १ ॥ निगृह्य कोपतः कांश्चित् कांश्चित् तुष्ट्याऽनुगृह्य च । प्रतार्यन्ते मृदुधियः, प्रलम्भनपरैः परैः ॥२॥ वे क्रोधमें आ कर किसीका कोइ दिन निग्रह करे संतुष्ट होकर वे किसी पर फिर अनुग्रह भी करे । ठगते रहे भोले जगतको इस तरह सब देव वें जाए कहां मुझ-सा-अबुझ ? कह दो मुझे जिनदेव हे ! ॥ २ ॥ " अप्रसन्नात् कथं प्राप्यं फलमेतदसङगतम् । चिन्तामण्यादयः किं न, फलन्त्यपि विचेतनाः “जो देव रागविहीन है वह खुश नहीं होगा कभी फल किस तरह उससे मिलेगा ?" - यह कुशंका है अजी ! | देखो कि चिन्तारत्न तो जड चीज है फिर भी अगर १ फल दे सके, तो क्यों न दे फल जिन- २ परम चैतन्यमय ? ॥ ३ ॥ वीतराग ! सपर्याऽपि, तवाऽऽज्ञापालनं परम् । आज्ञाऽऽराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च Jain Education International || 3 || ५९ For Private & Personal Use Only || 8 || www.jainelibrary.org

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