Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 98
________________ जब आपकी सुन्दर सलोनी मूर्तिके दर्शन करूं रोमांच जो होता तभी उसका न वर्णन कर सकुं । अब चाहुं इतना ही कि इस रोमांचके माहात्म्यसे में छूटुं चिरकालीन-मिथ्या-वासना-तादात्म्यसे ।।४।। त्वद्वक्त्रकान्तिज्योत्स्नासु, निपीतासु सुधास्विव । मदीयैर्लोचनाम्भोजैः, प्राप्यतां निर्निमेषता ॥५॥ है नाथ ! तेरा वदन पूनमका मनोहर चन्द्रमा उससे उगलती दीप्ति है ज्योत्स्ना अतीव मनोरमा । अमृत-सी-उस-मधुर-दीप्तिका सरस-रसपान कर बन जाय नित-विकसित विभो! मेरे नयनके-दो कमल ||५|| त्वदास्यलासिनी नेत्रे, त्वदुपास्तिकरौ करौ। त्वद्गुणश्रोतृणी श्रोत्रे, भूयास्तां सर्वदा मम ॥६॥ तुज मुखकमल पर नित्य रमते नयन मेरे हो सदा करता रहे कर-युग्म मेरा नित्य तुज पद-सेवना । सार्थक बनो मुज कर्णयुग गुणगान सुनते आपका हे नाथ ! मेरी एक ही है हृदय से यह प्रार्थना ।। ६ ।। कुण्ठाऽपि यदि सोत्कण्ठा, त्वद्गुणग्रहणं प्रति । ममैषा भारती तर्हि, स्वस्त्येतस्यै किमन्यया ? ॥७॥ निर्वीर्य यद्यपि देव ! वाणी है हमारी सुस्त तो तो भी अगर तुज गुणकथामें रसिक एवं चुस्त वोहोगी, तभी तो ठीक है, इससे अपेक्षा अधिक नाउससे; सदा कल्याण उसका, काम है क्या अन्यका ? ||७|| 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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