Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 86
________________ आसक्त पलभर दिल बने, फिर पलकमें ही विरक्त भी, क्षणमें बने मन क्रुद्ध, फिर क्षणमें ही प्रशम प्रबुद्ध भी । इसबिध विविध-मोहादि-दोषोंने किया खिलवाड तो नादान-वानर-तुल्य-मेरे साथ; अब थाक्यो विभो ! ।। ४ ।। प्राप्यापि तव सम्बोधिं, मनोवाक्कायकर्मजैः । दुश्चेष्टितैर्मया नाथ ! शिरसि ज्वालितोऽनलः ॥५॥ हे शुभ-गुणाकर देव ! पाकर शुद्ध बोधि आपसे मैंने अनर्थ रचे बडे मन-वचन-कायिक पापसे । मैंने लगाई आग मेरे हाथ मेरे सर उपर मेरी अनिष्ट व दुष्ट चेष्टासे; जगत-कल्याणकर ! ।। ५ ।। त्वय्यपि त्रातरि त्रातर् ! यन्मोहादि-मलिम्लुचैः । रत्नत्रयं मे हियते, हताशो हा ! हतोऽस्मि तत् ॥६॥ हे तात ! त्राता तू मिल्यो जगको शरनदाता मुझे मोहादि-लूटेरे बडे लुटने खडे तो भी मुझे । रत्नत्रयीको लूटकर बरबाद वे करते मुझे भग्नाश-मैं यह त्रास कैसे सहुं ? बचाओ ! अब मुझे ।। ६ ।। भ्रान्तस्तीर्थानि दृष्टस्त्वं, मयैकस्तेषु तारकः । तत् तवांह्रौ विलग्नोऽस्मि, नाथ ! तारय तारय ।। ७ ।। है तीर्थ जितने जगतमें धरि आश भटका सब जगह जितने जगतमें देव सबको भजे तरने की वजह | तारक न पाया किन्तु कोई, हार कर तुझ-चरनमें आया, उगारो नाथ ! अब तो लो मुझे निज-शरनमें ।।७।। ५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only " Maujainelibrary.org

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