Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 89
________________ हे नाथ तीनों भुवनके! तुम चरणकी मैं शरण लूं । कर साधना फल सिद्धि पाए - सिद्ध प्रभुकी शरण लूं । मैत्री - मधुर जिनधर्म में रत - साधु - पदकी शरण लूं श्री जैनशासन की हृदयके भावसे मैं शरण लूं ॥ ४ ॥ 1 सर्वेषामर्हदादीनां, यो योऽर्हत्त्वादिको गुणः । अनुमोदयामि तं तं सर्वं तेषां महात्मनाम् ॥ ५ ॥ अर्हंत आदिक परम पावन चित्तभावन पूज्यगण उनमें अनावृत और विकसित जो हुए हैं आत्मगुण । अनुमोदना प्रमुदित हृदय से उन सभी की मैं करूं पाऊं परम गुणरागसे गुणवृन्द आत्मिक जागरण ॥ ५ ॥ - क्षमयामि सर्वान् सत्त्वान्, सर्वे क्षाम्यन्तु ते मयि । मैत्र्यस्तु तेषु सर्वेषु त्वदेकशरणस्य मे ॥ ६ ॥ तेरे पतितपावन चरणकी शरण पाकर देव ! मैं । प्रार्थं क्षमा प्रत्येक प्राणीसे परम सद्भावसे । जगके सकल जीवों प्रति अर्पित करूं मैं भी क्षमा सब मित्र मेरे, मैं सभी का मित्र शुद्ध स्वभाव से एकोऽहं नास्ति मे कश्चिन्न चाहमपि कस्यचित् । त्वदंघ्रिशरणस्थस्य, मम दैन्यं न किञ्चन Jain Education International ॥ ६ ॥ मैं हूं अकेला, इस जगतमें कोइ भी मेरा नहीं अनुबन्ध मेरा अन्य कोई से तथा कुछ भी नहीं । अशरण-शरण भवजल-तरण जिन चरणको आधीन हूं निजरूप अनुभव-लीन अब मैं हीन नहि, ना दीन हूं ॥ ७ ॥ ५४ For Private & Personal Use Only 11611 www.jainelibrary.org

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