Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 88
________________ सप्तदश: प्रकाश : ॥ स्वकृतं दुष्कृतं गर्हन्, सुकृतं चानुमोदयन् । नाथ ! त्वच्चरणौ यामि, शरणं शरणोज्झितः || 9 || गर्हा करूं अपने किए सब दुष्कृतोंकी हे प्रभो ! सत्कर्म जो मैंने किए उनकी करूं अनुमोदना । अशरण बनी भवरण भमत हे नाथ ! जीवन-साथ हे ! तव चरण में चाहुं शरण ज्यौं मिटत भवकी वेदना ॥ १ ॥ मनोवाक्कायजे पापे, कृतानुमतकारितैः । मिथ्या मे दुष्कृतं भूया - दपुनः क्रिययाऽन्वितम् ॥ २ ॥ बहु पाप करवाए, किए, अनुमोदना भी खूब दी मनसे, वचनसे, बदनसे, हे सांइ बिगरी जिंदगी । निश्चय करुं फिरसे न करनेका, किए सब पापकी याचुं क्षमा भगवंत ! स्वीकारो हमारी बंदगी 113 11 यत्कृत सुकृतं किञ्चिद्, रत्नत्रितयगोचरम् । तत्सर्वमनुमन्येऽहं, मार्गमात्रानुसार्यपि ॥ ३॥ रत्नत्रयी के अंश का भी आचरण सत्कर्म है सन्मार्गका अत्यल्प भी अनुसरण भी सत्कर्म है । मार्गानुसरण शुभाचरण जो बन पडा मुझसे विभो ! अनुमोदना सब की करूं, यह भी सरस शुभकर्म है ॥ ३ ॥ त्वां त्वत्फलभूतान् सिद्धां - स्त्वच्छासनरतान् मुनीन् । त्वच्छासनं च शरणं, प्रतिपन्नोऽस्मि भावतः || 8 11 Jain Education International ५३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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