Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 87
________________ भवत्प्रसादेनैवाऽह- मियती प्रापितो भुवम् । औदासीन्येन नेदानी, तव युक्तमुपेक्षितुम् ॥८॥ मेरी समझमें आज ही आया कि मैं जिनराज हे । पहंचा यहां तक आपकी पावन कपाके दान से । जगबन्धु ! करुणासिन्धु ! मेरी अब उपेक्षा क्यों करो ? मुझ को गलत-तकदीर के जिनवर ! हवाले क्यों करो? ।। ८ ।। ज्ञाता तात ! त्वमेवैक - स्त्वत्तो नान्यः कृपापरः । नान्यो मत्तः कृपापात्र- मेधि यत्कृत्यकर्मठ: ॥९॥ ज्ञानी नहीं तुम-बिन कहीं हे देव ! सारे जगतमें निष्काम करुणावंत हे भगवंत ! तू ही विश्व में | १मुझ सा गरीब व अधम करुणापात्र ना कोई यहां २पर्याप्त है इतना निवेदन, गर सुनो शाहेजहां ! ।। ९ ।। इति आत्मगहस्तिवः ।। HAR E V Tips 4 श्री हेमचंद्राचार्य राजा कुमारपाळ १. मुझ-सा गरीब व अधम करुणापात्र भी कोई नहीं - पाठां. ।। २. अब उचित-अनुचित-कृत्य क्या ? यह बात जानो आप ही ।। अथवा - अब उचित-अनुचित-कृत्यकी तो आपके ऊपर रही - || पाठां ।। ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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