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पञ्चदशः प्रकाश : || जगज्जैत्रा गुणास्त्रातर् ! अन्ये तावत् तवाऽऽसताम् । उदात्तशान्तया जिग्ये, मुद्रयैव जगत्त्रयी ॥१॥ विभु ! है अनन्त विशिष्टताएं जग-विलक्षण आपकी कितनी गिनाउं ? सिर्फ एक विशेषता कहुं बापजी ! | यह परम शान्त-उदात्त-अनुपम-वदनमुद्रा ही विभो ! है भुवन-जन-मन-मोहिनी अरु विश्वविजयी तव अहो!||१|| मेरुस्तृणीकृतो मोहात, पयोधिर्गोष्पदीकृतः ।। गरिष्ठेभ्यो गरिष्ठो यैः, पाप्मभिस्त्वमपोदितः ॥२॥ जिन पापियों ने पापके उन्मादवंश मरजादकोतज के किया है श्रेष्ठतम विभु ! आपका अपवाद तो। उन मूढ लोगों ने सुमेरु-गिरीन्द्रको तृण-सा गिना फिर छीछरा तालाब सागरको उन्होंने भी गिना ।।२।। च्युतश्चिन्तामणिः पाणेस्तेषां लब्धा सुधा मुधा । यैस्ते शासनसर्वस्वमज्ञानैर्नात्मसात्कृतम् ॥३॥ जिन लोगने पाकर तुम्हारा भव्य जिनशासन अहा ! अज्ञानवश कर दी उपेक्षा नाथ ! उसकी भी महा । उन लोगने चिंतामणी पा कर गंवाया हाथसे पीयूष भी पाकर उन्होंने ढोल डाला ठाठसे ॥३॥ यस्त्वय्यपि दधौ दृष्टि- मुल्मुकाकारधारिणीम् । तमाशुशुक्षणिः साक्षा- दालप्याऽलमिदं हि वा ॥ ४ ॥
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