Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 83
________________ मात्सर्यके - अंगार-सी जलती नजर से तो तुझे जिनराज ! जो है देखता साक्षात अब अग्नि उसे । ( ले लिपट ); अथवा बात यह नहि सोहती मुझ जीभ पर अनुरूप उनकी - पात्रता के फल मिलेगा ही मगर ॥ ॥ ४ ॥ त्वच्छासनस्य साम्यं ये, मन्यन्ते शासनान्तरैः । विषेण तुल्यं पीयूषं तेषां हन्त ! हतात्मनाम् ॥ ५ ॥ तव धर्म लोकोत्तर, व लौकिक अन्यदर्शन है सभी फिर भी 'यह व वह एक से सब' यों कहे जो मुग्धधी । लगता कि उनकी रायमें पीयूष एवं जहरमें - कोई फरक नहि; और उजडे-गांवमें अरु शहरमें || ५ || अनेडमूका भूयासुस्ते येषां त्वयि मत्सरः । शुभोदर्काय वैकल्यमपि पापेषु कर्मसु ॥ ६ ॥ हे देव ! जिनके चित्तमें मात्सर्य तेरे उपर है वे बोकडे नहि है भले, तो भी बनो वे बोबडे ! विभु ! क्योंकि भारेकर्मियोंकी विकलता यह- देहकी उनके शुभोदयका बनेगी हेतु भावीमें सही ॥ ६ ॥ तेभ्यो नमोऽञ्जलिरयं, तेषां तान् समुपास्महे । त्वच्छासनामृतरसै - र्यैरात्माऽसिच्यताऽन्वहम् ॥ ७ ॥ हे नाथ! जगदाधार तू, दिलदार तू, तव धर्मकेपीयूषरस से स्नान जो करते अहर्निश धन्य वे । उनको नमन करूं मैं समर्पु भाव- अंजलि भी उन्हें उनकी करूं समुपासना; हो राग शासनका हमें Jain Education International ४८ For Private & Personal Use Only 110 11 www.jainelibrary.org

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