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फलानुध्यानवन्ध्योऽहं, फलमात्रतनुर्भवान्। प्रसीद यत्कृत्यविधौ, किंकर्तव्यजडे मयि ॥ ८ ॥ है साधनाका फल परमपद, नाथ ! तू तद्रूप है नहि लेश फलके लाभकी चिन्ता मुझे जिनभूप ! है | में कमअकल दिग्मूढ हूं, अब क्या करूं यह नहि पता करके कृपा करुणाल हे ! कर्तव्य-पथ मुजको बता ।। ८ ।।
इति हेतुनिरासस्तवः ।।
श्री हेमचंद्राचार्य
राजा कुमारपाळ
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