Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 77
________________ भव नहि, तथापि महेश तू, नहि विष्णु तो भी नरक को उच्छेद करता तू, रजोगुण नहि तथापि ब्रह्म तू । हे परम अगम अकल अगोचर अलख आतमराम ! तू तुजको नमन, तुजको नमन, जिनराज ! तुजको नमन हो ! ॥४॥ अनुक्षितफलोदग्रा -दनिपातगरीयसः । असंकल्पितकल्पद्रो - स्त्वत्तः फलमवाप्नुयाम् ॥ ५ ॥ सिंचन बिना भी पुष्ट जो होता सुफल वह आप हो गौरव लचीले तदपि जिनका पतन नहि वह आप हो । फल जो अकल्पित दे सके वह कल्पतरु भी आप हो करूं आश मैं फलकी जिनेश्वर ! क्यों नहीं फिर आप से ? असङ्गस्य जनेशस्य, निर्ममस्य कृपात्मनः । मध्यस्थस्य जगत्त्रातुरनङ्कस्तेऽस्मि किङ्करः || ६ ॥ निःसंग तो भी ईश जगका जगत - वल्लभ नाथ. तू निर्मम तथापि कृपा-महोदधि परमदुर्लभ नाथ तू । मध्यस्थ होते भी हुए त्राता जगतका देव तू अक्रीत मैं तव दास मालिक मात्र मेरा एक तू ॥६॥ अगोपिते रत्ननिधाववृते कल्पपादपे । अचिन्त्ये चिन्तारत्ने च, त्वय्यात्माऽयं मयाऽर्पितः || ७ || है प्रकट रत्ननिधान सच्चा नाथ ! तू मेरे लिए बिनु - याचनाके भी वरद तू कल्पतरु मेरे लिए । चिन्तामणी तू है अचिन्तित लाभकर मेरे लिए मैं तो समर्पित हो चुका बस एक तेरे चरणमें Jain Education International ४२ For Private & Personal Use Only 110 11 www.jainelibrary.org

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