Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 76
________________ त्रयोदशः प्रकाश : || अनाहूतसहायस्त्वं, त्वमकारणवत्सलः | अनभ्यर्थितसाधुस्त्वं- त्वमसम्बन्धबान्धवः ॥१॥ बे-बुलाये भी हुए तू है सहायक विश्वका निरपेक्ष तू वात्सल्य-सागर है समूचे विश्वका । बिन-याचना के भी करत उपकार सबका तू सजन ! रिश्ता नहीं तो भी सभीका नाथ ! तू हो बन्धुजन ।। १ ।। अनक्तस्निग्धमनस- ममजोज्ज्वलवाक्पथम् । अधौतामलशीलं त्वां, शरण्यं शरणं श्रये ॥२॥ निःस्नेह होते भी सभर वात्सल्य से तव चित्त है मार्जन बिना भी वचन-पथ तेरा अतीव पवित्र है। धोये बिना भी सहज-निर्मल देह तव अरु करण है हे शरणभूत ! तिहार अद्भुत चरणकी ग्रहुं शरण मैं ।। २ ।। अचण्डवीरवृत्तिना, शमिना शमवर्त्तिना । त्वया काममुकुट्यन्त, कुटिलाः कर्मकण्टकाः ॥ ३ ॥ सौम्यत्व-मण्डित वीरताके धनिक ! आप अपाप हो उपशम-सुधारसका खजाना और आप अमाप हो । यमराज-सा फिर भी भयानक ढंग देखा आपका जब कुटिल कोंकी मरम्मत आपने कर दी भला ! || ३ || अभवाय महेशाया- ऽगदाय नरकच्छिदे। अराजसाय ब्रह्मणे, कस्मैचिद् भवते नमः ॥४।। ४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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