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स्वामिन, जभी देवेन्द्र अरु राजेन्द्र के ऐश्वर्यका अगले भवों में आपने उपभोग पाया था महा । उस ओर जो निर्लेपता बरती तभी विभु ! आपने उसमें किया परगट निजी वैराग्य मौलिक आपने || ४ || नित्यं विरक्तः कामेभ्यो, यदा योगं प्रपद्यसे । अलमेभिरिति प्राज्यं, तदा वैराग्यमस्ति ते ॥५॥ नित रहित विषयासक्तिसे तू विषयसुख जब त्यागता 'इस से अलं' यह सोचकर फिर योगपथ स्वीकारता | वैराग्य तेरा तब विलक्षण व्यक्त होता हे विभो ! अब किस तरह हे भवविरहदाता ! स्तबु मैं आपको ? || ५ || सुखे दुःखे भवे मोक्षे, यदौदासीन्यमीशिषे । तदा वैराग्यमेवेति, कुत्र नाऽसि विरागवान् ? ॥६॥ ऐश्वर्य औदासीन्यका तव जब प्रसरता है विभो ! सुख-दुःखके अरु मोक्ष-भवके द्वन्द्वमें स्वयमेव तो । वैराग्य तो खिल जाय तेरा तब जिनेश्वर ! पूर्णतः अब सोचुं मैं कि विराग तेरा किस विषयमें ना स्वतः ? || ६ ।। दुःखगर्भे मोहगर्भे, वैराग्ये निष्ठिताः परे। ज्ञानगर्भ तु वैराग्यं, त्वय्येकायनतां गतम् ॥७॥ वैराग्य तो है त्रिविध, पहला दुःख गर्भित, दूसराहै मोहगर्भित, ज्ञान से गर्भित तथा है तीसरा । २सब हैं भरे दुःख-मोहगर्भ-विराग से परतीर्थिकों तू ज्ञानगर्भ-विरागका घर एक ही है हे विभो ! ||७||
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