Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 63
________________ तेनोत्पादव्ययस्थेम- संभिन्नं गोरसादिवत् । त्वदुपज्ञं कृतधियः, प्रपन्ना वस्तु वस्तुसत् ॥ १२ ॥ दृष्टांत से गोरस-वगैरह के बताया आपने "उत्पाद-नाश-ध्रौव्य-मंडित वस्तु ही सद्प है।" १इस सत्यको समजे जगतमें जो वही तत्त्वज्ञ है हे नाथ ! जो है भ्रान्त वे तो बस पडे भव-कूपमें ।। इति एकान्तनिरासस्तवः ।। म YAON 044 . मसम्ममा श्री हेमचंद्राचार्य राजा कुमारपाळ १. इस सत्यको समझे वही तत्त्वज्ञ जो जन जगतमें || पाठां. ।। २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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