Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 64
________________ नवमः प्रकाश : ॥ यत्राऽल्पेनाऽपि कालेन, त्वद्भक्तेः फलमाप्यते । कलिकालः स एकोऽस्तु, कृतं कृतयुगादिभिः ॥१॥ थोडे समयमें ही मिले भगवंत ! तेरी भक्ति का परिणाम मनचाहा जहां, कलिकाल वह मुझको जचे । कृतयुग वगैरह अन्य तीनों कालकी आसक्ति या आग्रह रहा नहि अब, मुझे तो रटन बस तेरा रुचे ।। १ ।। सुषमातो दुःषमायां, कृपा फलवती तव । मेरुतो मरुभूमौ हि, श्लाघ्या कल्पतरोः स्थिति : ॥ २॥ हे देव ! सुखमय समयसे यह काल दुःषम ठीक है देगी अधिक फल क्योंकि करुणा आपकी इस कालमें । श्री मेरुपर्वत पर बसे विभु ! कल्पतरु यह ठीक है, होगी प्रशंसा किन्तु उसकी यदि बसे वह भालमें ।। २ ।। श्राद्धः श्रोता सुधीर्वक्ता, युज्येयातां यदीश ! तत् । त्वच्छासनस्य साम्राज्य- मेकच्छत्रं कलावपि ॥३॥ श्रद्धासभर श्रोता व वक्ता बुद्धिनिष्ठासे सभर हो जाय विभु ! इन-दो-जनोंका मिलन भक्तिसभर अगर | तब तो जिनेश्वर ! जैन शासनका अचल साम्राज्य भी जयवंत बरतेगा विषम होता भले कलिकाल भी ।।३।। युगान्तरेऽपि चेन्नाथ !, भवन्त्युच्छृङ्खलाः खलाः । वृथैव तर्हि कुप्यामः, कलये वामकेलये ॥४॥ .. २९ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100