________________
इक ओर तू अनुरक्त है चित्सुख व आत्मानन्दमें फिर तू ही देव ! विरक्त है सुख-दुःख के सब द्वन्द्व से | यह दो विरोधी-स्थिति उपर श्रद्धारहित-जनको विभो ! श्रद्धा जमे कैसे? सकल-अद्भुत-सभर! यह तो कहो!||४|| नाथेयं घट्यमानाऽपि, दुर्घटा घटतां कथम् ? | उपेक्षा सर्वसत्त्वेषु, परमा चोपकारिता ॥५॥ सारे जगत पर तू परम उपकार अविरत कर रहा फिर भी परम मध्यस्थता से पेखता जगको रहा ! उपकार भी, माध्यस्थ्य भी, दुर्घट अनूठी तुज विभो ! घटना घटे किसबिध? -१समस्या यह शमे नहि मुझ अहो!||५|| द्वयं विरुद्वं भगवंस्तव नान्यस्य कस्यचित् । निर्ग्रन्थता परा या च, या चौञ्चैश्चक्रवर्तिता ॥६॥ सब बाह्य-आन्तर- २ग्रंथियोंसे मुक्त वर-निर्ग्रन्थ तू फिर भी समूचे विश्वका है चक्रवर्ती नाथ ! तू | साम्राज्य अरु३ वैराग्यका विभु द्वन्द्व यह तो आप ही - अपना सके, नहि अन्य कोई देव की ताकात भी ।। ६ ।। नारका अपि मोदन्ते, यस्य कल्याणपर्वसु । पवित्रं तस्य चारित्रं, को वा वर्णयितुंक्षमः ? ॥७॥ जिनके सभी कल्याणकोंके पर्वके सुप्रसंगमें नित-वेदना-संतप्त-नारक-जीव भी आनन्दमें | उनके पवित्र चरित्रका विभु ! कौन वर्णन कर सके ? क्या पंगु जन भी ताग सागरका कभी ले पा सके ? ||७||
33
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org