Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 71
________________ मालिक! किसीको आपने कुछ भी कभी भी नहि दिया नहि दूसरों से आपने कुछ भी ३कभी भी ले लिया । फिर भी प्रभुत्व समग्र जगका नाथ ! तेरे हाथमें कैसी अनोखी यह कला है निपुण ! तेरी नाथ हे ! ॥ ४ ॥ यद्देहस्यापि दानेन, सुकृतं नार्जितं परैः । उदासीनस्य तन्नाथ ! पादपीठे तवाऽलुठत् ॥ ५ ॥ कर दान अपने देहका भी सुकृत-सर्जनके लिये परतीर्थियोंने नहि कमाया सुकृत-धन जो नाथ हे ! । वह सुकृत तो लोटे स्वयं तव चरण-कमलोंमें सदा हे देव! परम-निरीहता से क्योंकि तू छलके सदा ॥ ५ ॥ रागादिषु नृशंसेन, सर्वात्मसु कृपालना । भीमकान्तगुणेनोञ्चैः साम्राज्यं साधितं त्वया ॥ ६ ॥ रागादि - रिपुओंके प्रति निष्ठुर व निर्दय तू बना जगके सकल जीवों उपर फिर तू दयामय भी बना । यह क्रूरता अरु मधुरताके योग बलसे आपने साम्राज्य ठाना है समूचे विश्व पर तो नाथ हे ! ॥ ६ ॥ ॥ ७ ॥ सर्वे सर्वात्मनाऽन्येषु, दोषास्त्वयि पुनर्गुणाः । स्तुतिस्तवेयं चेन्मिथ्या, तत्प्रमाणं सभासदः " हे नाथ! तुझमें ही विलसते सब गुणों सम्पूर्णतः अरु इतर देवोंमें सभी अवगुण भरे सम्पूर्णतः । " स्तुति आपकी यह तो किसीको गलत लगती अगर, तोमध्यस्थ सभ्योंका वचन इस विषयमें अब मान्य हो ! || ७ | Jain Education International ३६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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