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एकादश: प्रकाश : || निधनन् परीषहचमू- मुपसर्गान प्रतिक्षिपन् । प्राप्तोऽसि शमसौहित्यं, महतां कापि वैदुषी ॥१॥ स्वामिन् ! परीषह-सैन्यको तू खतम तो करता रहा अवमानना आते-सभी-उपसर्गकी करता रहा ! | फिर भी प्रशम-रस-तृप्ति पाई आपने जिनराजजी ! होती बडोंकी निपुणता न्यारी १निरंतर नाथजी ! || १ || अरक्तो भुक्तवान मुक्ति - मद्विष्टो हतवान् द्विषः । अहो महात्मनां कोऽपि, महिमा लोकदुर्लभः ॥ २॥ रागी न होते भी करे तू मुक्ति-रमणी-रमण हे ! द्वेषी नहीं फिर भी करे तू कर्म-रिपुका २ दहन हे ! | कितनी निराली आपकी महिमा जगत से यह अहो ! अब लोकदुर्लभ यह बने इसमें अचंबा क्या ? कहो ! ।। २ ।। सर्वथा निर्जिगीषेण, भीतभीतेन चागसः । त्वया जगत्त्रयं जिग्ये, महतां कापि चातुरी ॥३॥ इच्छा तनिक नहि दिग्विजयकी आपके विभु ! हृदयमें ! फिर आप तो आवेश अरु उन्मादसे डर भी रहे ! तो भी विजय पा ही लिया तीनों भुवन पर आपने चातुर्य यह कैसा बडोंका ! - यह न पाऊँ जानने ।। ३ ।। दत्तं न किञ्चित् कस्मैचि- न्नात्तं किञ्चित् कुतश्चन | प्रभुत्वं ते तथाप्येतत, कला कापि विपश्चिताम् ||४||
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