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होते अगर विभु ! सत्ययुगमें भी निरंकुश दुष्टजन तब क्यों निकाले दोष है कलिकालका सब शिष्टजन ? | कलिकालमें खल बहुत हैं तो सत्ययुगमें क्या नहीं ? जो भक्तिफल फिर सत्ययुगमें मिलत कलियुगमें वही।। ४ ।। कल्याणसिद्धयै साधीयान, कलिरेष कषोपलः । विनाग्निं गन्धमहिमा, काकतुण्डस्य नैधते ॥५॥ कलि है कसौटी सिद्धिमें कल्याणरसकी जीव हे ! यदि भक्ति सच्ची है तभी तो सिद्ध होगा वह अरे ! जैसे कि तीखी आगमें जब तक न डाला जात है कृष्णागुरूकी सुरभि तब तक भाइ ! बढ नहि आत है ।। ५ ।। निशि दीपोऽम्बुधौ द्वीपं, मरौ शाखी हिमे शिखी। कलौ दुरापः प्राप्तोऽयं, त्वत्पादाब्जरजःकणः ॥६॥ ज्यों रात्रिमें हो दीप अरु ज्यों द्वीप सागरमें मिले मरु देशमें ज्यों कल्पतरु अरु अग्नि हिमगिरि पर मिले । बस ठीक वैसे ही मुझे कलिकालमें महाराज हे ! तुज चरण पंकज-रज मिली दुर्लभ, कृतारथ आज मैं ।। ६ ।। युगान्तरेषु भ्रान्तोऽस्मि, त्वदर्शनविनाकृतः नमोऽस्तु कलये यत्र, त्वदर्शनमजायत ॥७॥ होते रहे सब अन्य युगमें नाथ ! जो मेरे जनम तेरे दरश बिन वे सभी थे सिर्फ भववनमें भ्रमण । सब कोसते जिसको उसी कलिकालको मैं करूं नमन दर्शन मुझे तेरे मिले कलिकालमें ही भवशमन ।।७।।
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