Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 58
________________ संतप्त-दुःखोंसे तथा दुर्भाग्यसे-पीडित२ सदा अपयोनियोंमें जनमनेके क्लेश से विह्वल तथा । सब प्राणिगण सरजे तुम्हारे विश्व-सर्जकने अहो ! फिर भी कहा जाए कृपालु किस तरहसे वह ? कहो! ||४|| कर्मापेक्षः स चेत्तर्हि, न स्वतन्त्रोऽस्मदादिवत्। कर्मजन्ये च वैचित्र्ये, किमनेन शिखण्डिना ? ॥५॥ यदि प्राणियोंके पूर्व-कर्मोंकी गरज सर्जक रखें परतंत्र तब वह बन गया-जैसे पृथग्जन-सृजनमें । फिर जगतका वैचित्र्य कर्माधीन ही होता यदा क्या है प्रयोजन इस शिखण्डीतुल्य ईश्वरका तदा ? || ५ ।। अथ स्वभावतो वृत्ति - रविता महेशितुः । परीक्षकाणां तर्खेष, परीक्षाक्षेपडिण्डिमः ॥६॥ अब यों कहो : जगदीशकी यह रीत ही है; मत करोकोई तरहका तर्क इसमें, सिर्फ स्वीकारा करो ! यह तो हुआ ऐसा कि आप परीक्षकोंको कह रहे : 'आओ, परीक्षा लो ! अपितु कुछ पूछना नहि मित्र हे!।। ६ ।। सर्वभावेषु कर्तृत्वं, ज्ञातृत्वं यदि सम्मतम् । मतं नः सन्ति सर्वज्ञाः, मुक्ताः कायभृतोऽपि च । ।। ७ ॥ "जगदीश सर्जक जगतका-इस कथनका तात्पर्य यह : ज्ञानात्मना पूरे जगतमें छा रहा वह हर जगह ।" यह तो हमें भी मान्य है ऐसे द्विधा सर्वज्ञ है एक देहधारी, दूसरे अरु सिद्ध रूपातीत है ।। ७ ।। २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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