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सप्तमः प्रकाश : || धर्माधर्मी विना नाऽङ्ग, विनाऽङ्गेन मुखं कुतः ? | मुखाद् विना न वक्तृत्वं, तच्छास्तारः परे कथम् ? || १ ।। “ना वेदबानी पुरुषकृत", पर-तीर्थिकोंका ख्याल यह कितना असंगत है सरासर नाथ ! दीनदयाल वह ! | बानी बिना-मुख-के न निकले, वदन भी न बदन बिना वह भी कभी बनता नहीं अपने-किए-कर्मों बिना || १ || अदेहस्य जगत्सर्गे, प्रवृत्तिरपि नोचिता । न च प्रयोजनं किञ्चित, स्वातन्त्र्यान्न पराज्ञया ॥२॥ जब देह ईश्वरको नहीं तब सृष्टि-सर्जन वह करे, यह बुद्धिसंगत भी नहीं अरु उचित भी कैसे लगे ? | नहि है प्रयोजन सृजनका, फिर, नित्यमुक्त ब्रह्मको; स्वाधीन-उस-पर सृजनका परका चले नहि हुक्म तो।। २।। क्रीडया चेत् प्रवर्तेत, रागवान् स्यात् कुमारवत् । कृपयाऽथ सृजेत् तर्हि, सुख्येव सकलं सृजेत् ॥३॥ मानों कदाचित ईश क्रीडावश जगत-सर्जन करे तब राग-बन्धन-में फंसा वह, खेल वरना क्यों करे ? | अब यह कहो : वह परम-करुणासे बनाता सृष्टिको यहभी कहोः तब क्यों बनाता नहि सुखी ही सृष्टिको ? ||३|| दुःखदौर्गत्यदुर्योनि - जन्मादिक्लेशविह्वलम् । जनं तु सृजतस्तस्य, कृपालोः का कृपालुता ? ॥४॥
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