Book Title: Vitragstav
Author(s): Hemchandracharya, Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 56
________________ तिष्ठेद् वायुर्द्रवेदद्रि - लेज्जलमपि क्वचित् । तथापि ग्रस्तो रागाद्यै र्नाप्तो भवितुमर्हति - इकबार वायु स्थिर बने, ठंडक दिए यदि आग भी, जल सुलगने लग जाय इससे उजड जाये बाग भी । यह शक्य है शायद; परन्तु देव-दोषग्रस्त तो लायक हमारा ‘आप्त' बननेको नहीं, इति शं विभो ! ॥ १२ ॥ इति प्रतिपक्षनिरासस्तवः ॥ Jain Education International श्री हेमचंद्राचार्य राजा कुमारपाळ ॥ १२ ॥ १. जिनराज ! किसके पास हम पोकार जा कर तो करें ? | पाठां ॥ २. अवगणे; हाये न डरते पापसे ! ॥ पाठां ॥ ३. परपक्ष तेरा अनवरत गरजा करे निजगेहमें ॥ पाठां ॥ २१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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