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निज-उदर तृप्ति में तथा निज-वासना की पूर्ति में जो व्यग्र है उन इष्टदेवोंको सतत जो पूजके | आस्तिक गिने खुदको कई जन जगतमें जिन ! आप-से निर्ग्रन्थ को भी अवगणे; डरते न वे क्या पापसे ?२ || ८ || खपुष्पप्रायमुत्प्रेक्ष्य, किञ्चिन्मानं प्रकल्प्य च | सम्मान्ति गेहे देहे वा, न गेहेनर्दिनः परे ॥९॥ आकाशकुसुमसमान एक पदार्थकी कर कल्पना आकार अरु आयामकी उसके तथा कर कल्पना । स्वामिन् ! स्वगृहमें वे न माये ना समाये देहमें 'हम सर्वव्यापी' इस तरह गाजे सतत निजगेहमें३ || ९ ।। कामराग-स्नेहरागा - वीषत्करनिवारणौ । दृष्टिरागस्तु पापीयान, दुरुच्छेदः सतामपि ॥ १० ॥ पुरुषार्थ कोइ पुरुष करे सन्निष्ठतासे अल्प भी तो स्नेहजनित व कामप्रेरित राग का क्षय शक्य है । 'मैं ही हुं सच्चा, अन्य जूठे' यह कुदृष्टिराग को सज्जनजनों के भी लिए उच्छेदना नहि शक्य है ।। १० ।। प्रसन्नमास्यं मध्यस्थे, दृशौ लोकम्पृणं वचः । इति प्रीतिपदे बाढं, मूढास्त्वय्यप्युदासते ॥११॥ प्रभुजी ! प्रसन्न वदन तुम्हारा नजर अरु शमरसभरी बुध-अबुध जनताको तथा प्रियकारिणी वाणी खरी । यह प्रीतिके सब हेतुओं उपलब्ध तुझमें पूर्णतः तो भी रखे अलगाव तुझसे मूढ जो जन है स्वतः ।। ११ ।।
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