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अहमिन्द्र-देवों-भी तलसते है अहर्निश नाथ ! कि - चरणों-की-सेवा- कब हमें मिल जाय त्रिभुवननाथकी । अब योगमुद्रासे अजाने आपके प्रतिपक्षकी हे योगियोंमें प्रवर जिनवर ! हम करें क्यों बात भी ? ।। ४ ।। त्वां प्रपद्यामहे नाथं, त्वां स्तुमस्त्वामुपास्महे । त्वत्तो हि न परस्त्राता, किं ब्रूमः ? किमु कुर्महे ? || ५॥ मालिक ! तुम्हारे बिन हमारा कोइ भी रक्षक नहीं अत एव स्वामीभावसे स्वीकारते तुझको सही । स्तुति भी करें तेरी तथा तेरी ही तो समुपासना नहि और कुछ करने व कहनेकी हृदयमें वासना ।। ५ ।। स्वयं मलीमसाचारैः, प्रतारणपरैः परैः । वञ्च्यते जगदप्येतत, कस्य पूत्कुर्महे पुरः ॥६॥ परवंचनामें चतुर अरु विपरीत-आचरणों भरे परतीर्थिकों द्वारा अबुध जगजन ठगाते हैं अरे ! । करुणासुधारससिन्धु ! बन्धु भान-भूलोंके खरे ! १जिनराज! तुम बिन हम कहां पोकार अब तोजा करें? ।।६।। नित्यमुक्तान जगज्जन्म - क्षेमक्षयकृतोद्यमान्। वन्ध्यास्तनन्धयप्रायान, को देवांश्चेतनः श्रयेत् ? ॥७॥ निशदिन करत उद्यम जगतके सृजन-पालन-नाशका कूटस्थ नित्य व मुक्त फिर भी है विपक्षी देवता । वन्ध्या-तनय-सम उन सभी की कौन करता सेवना ? जब तक तुम्हारी दृष्टिसे साबूत है हम चेतना ।।७।। कृतार्था जठरोपस्थ - दुःस्थितैरपि दैवतैः । भवादृशान् निहनुवते, हा हा ! देवास्तिकाः परे ॥ ८ ॥
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