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तवोर्ध्वमूवं पुण्यर्धि - क्रमसब्रह्मचारिणी । छत्रत्रयी त्रिभुवन - प्रभुत्वप्रौढिशंसिनी ॥८॥ ज्यों ज्यों जिनेश्वर ! आपकी आत्मा उपर उठती गई त्यों पुण्यऋद्धि भी अनुक्रमसे सहज बढती गई । इसबिध बना त्रिभुवनतिलक तू, सूचना इस बातकी जिननाथ ! तेरे शिर उपरकी दे रही छत्रत्रयी ॥ ८ ।। एतां चमत्कारकरी, प्रातिहार्यश्रियं तव । चित्रीयन्तेन के दृष्ट्वा, नाथ ! मिथ्यादृशोऽपि हि ? ||९॥ अद्भुत चमत्कारों-भरी तुझ प्रातिहार्यश्री अहो ! यह तो निरखकर कौन ना बनता अजायब हे विभो ! । मिथ्यात्वसे दृष्टि जिन्होंकी भ्रान्त अरु विपरीत है वे भी अचंबामें गरक यह देखकर सब होत है ।। ९ ।।
इति प्रातिहार्यस्तवः ॥
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श्री हेमचंद्राचार्य
राजा कुमारपाळ
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