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पञ्चमः प्रकाश : ||
गायन्निवालिविरुतै- नृत्यन्निव चलैर्दलैः । त्वद्गुणैरिव रक्तोऽसौ, मोदते चैत्यपादपः ॥१॥ चहुं ओर गुंजे भ्रमरगण, मानों स्वयं वह गा रहा ! कोमल थिरकते पत्र, मानों नृत्य भी वह कर रहा ! | सद्भूत तुज गुणके परम-अनुरागसे मानों बना यह रक्त चैत्यद्रुम तुम्हारा हर्ष-रसमें न्हा रहा ! || १ ।। आयोजनं सुमनसोऽधस्तान्निक्षिप्तबन्धनाः । जानुदध्नीः सुमनसो, देशनो| किरन्ति ते ॥२॥ तुज एक योजनमें प्रसरती देशनाकी भूमि पर देवों बिछावे स्निग्ध-सुरभित-दिव्य-पुष्पोंके प्रकर | जानुप्रमाण व ऊर्ध्वमुख फूलोंकी चादर यह अहो ! आदर बढावे आपके प्रति मम हृदयमें नाथ ! तो || २ || मालवकैशिकीमुख्य - ग्रामरागपवित्रितः । तव दिव्यो ध्वनिः पीतो, हर्षोद्ग्रीवैभृगैरपि ॥३॥ जब राग मालवकौंसके अतिमधुर-सूर-सभर विभो ! ध्वनि देशनाका दिव्य तेरे वदनसे प्रगटे प्रभो ! । तब देव-मानव सब बने मशगूल, यह आश्चर्य ना, हर्षोल्लसित गवृन्द भी सोत्कण्ठ ध्वनिरस पी रहा ! ।।३।। तवेन्दुधामधवला, चकास्ति चमरावली । हंसालिरिव वक्त्राब्ज - परिचर्यापरायणा ॥४॥
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